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[ मूलाचारे
दग्धकाष्ठसमानशरीरास्तिष्ठति । निसृष्टांगाः कायोत्सर्गेणाचलितशरीरावयवाः सुरस्य धगधगायमानादित्ययाभिमुखं शूरा मनागपि न संक्लेशमुद्वहंति शीतह्रदे प्रविष्टा इव संतिष्ठत' इति ॥ ८६६ ॥
वृक्षमूलं निरूपयन्नाह -
तथा प्रावृट्काले जलपूरिताशेषमार्गे गर्जत्पर्जन्यघोराशनिरवधिरितदिगंते वृक्षमूलेऽनेकसर्पाकीण चंडं रौद्रं वातं वार्द्दलं च प्रवर्षणशीलं मेघजालं च सहते सम्यगध्यासते । किविशिष्टं ? जलधारांधका रगहनं । पुनरपि किविशिष्टं ? रात्रिदिवं च क्षरन्मुशलप्रमाणपतद्धाराभिर्वर्षवृक्षमूले वसंति सहते च सत्पुरुषाः, न मनागपि चित्तक्षोभं कुर्वन्तीति ॥ ८६७ ॥
धारंधयारगुविलं सहति ते वादवाद्दलं चंडं । रतिदियं गतं सप्पुरिसा रुक्खमूलेसु ॥ ८६७॥
तंत्र स्थिताः परीषहाँश्च जयंतीत्याह
यवों को अचल किये हुए हैं । वे महामुनि धगधगायमान अग्नि के गोले के सदृश ऐसे सूर्य की तरफ मुख करके खड़े हो जाते हैं । ऐसे शूरवीर साधु किंचित् मात्र भी खेद को प्राप्त नहीं होते हैं प्रत्युत शीतसरोवर में प्रविष्ट हुए के समान शान्त रहते हैं । यह आतापन योग का स्वरूप कहा गया है ।
वादं सीदं उन्हं तण्हं च छुधं च दंसमसयं च । सव्वं सहति धीरा कम्माण खयं करेमाणा ॥ ८६८ ॥
वृक्षमूल योग का निरूपण करते हैं
गाथार्थ - जलधारा के गिरने से, अन्धकार से व्याप्त भयंकर वायु और बरसते मेघ से रात-दिन झरते हुए ऐसे वृक्षों के नीचे वे साधु वर्षा को सहन करते हैं || ८६७ ॥
श्राचारवृत्ति -- वर्षाकाल में सभी मार्ग जल से पूरित हो जाते हैं, गरजते हुए मेघ और घोर वज्र के शब्दों से दिशाओं के अन्तराल बहिरे हो जाते हैं । उस समय अनेक सर्पों से व्याप्त ऐसे वृक्ष के नीचे वे मुनि खड़े हो जाते हैं । वहाँ पर वायु के झकोरे से सहित सतत बरसते हुए मेघों की जलधारा को वे मुनि सहन करते हैं। जो जलधारा वन में गहन अन्धकार करने वाली है, रातदिन पड़ती हुई मूसल प्रमाण मोटी-मोटी धाराओं से वृक्ष भी सतत पानी की बूँदें गिरा रहे हैं । ऐसे समय में वे मुनिराज वृक्ष के नीचे ध्यान करते हैं और किंचित् मात्र भी चित्त में क्षोभ नहीं करते हैं । यह वृक्षमूल योग का स्वरूप कहा है ।
१. क० तिष्ठन्तीति
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वहाँ पर स्थित होकर वे साधु परीषहों को जीतते हैं
गाथार्थ - कर्मों का क्षय करते हुए वे धीर मुनि वात, शीत, उष्ण, प्यास, भूख, दंशमशक आदि सभी परीषहों को सहते हैं । । ८६८ ||
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