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मनगारभावनाधिकारः]
[५ एवं त्रिकालयोगिनः संतो वातं विनाशिताशेषतरुसमूह सहते तथा शीतं सहते तथोष्णं शोषिताशेषवनसरित्समुद्र 'सहंते तथा तृष्णां संतापिताशेषांगावयवां सहते तथा क्षुधां महाप्रलयकालसमुत्थिताग्निस्वरूपां सहते तथा दंशमशककृतोपद्रवं सहते तथा सर्पवृश्चिकपिपीलिकावराहादिकृतोपद्रवं च सहते, कि बहना सर्वमप्यूपसर्गजातं 'कर्मणां क्षयं कुर्वाणा: सहते न तंत्रमंत्रनिमित्तं नेह'लौकिकसुखनिमित्तं नापि परलोकभोगाकांक्षयेति ॥८॥ एवं कायभवं क्लेशसहनं निरूप्य वाग्भवं क्लेशसहनं निरूपयन्नाह
दुज्जणवयण चडयणं सहति अच्छोड सत्थपहरं च ।
ण य कुप्पंति महरिसी खमणगुणवियाणया साहू ॥८६६॥ दुष्टो जनो दुर्जनस्तस्य वचनं दुर्जनवचनं सर्वप्रकारेणापवादग्रहणशील मिथ्यादृष्टिखरपरुषवचनं, चटचटत्तप्तलोहस्फूलिंगसमानं सर्वजीवप्रदेशतापकर, सहते न क्षोभं गच्छन्ति, छोरं पेशन्यवचनं असहोषोदभावनप्रवणमथवा अछोडणं लोष्ठलगुडादिभिस्ताडनं, शस्त्रप्रहारं च खड्गादिभिर्घातं च सहते, इति सर्वमेतत्
आचारवृत्ति-इस प्रकार अभावकाश, आतापन एवं वृक्षमूल इन त्रिकाल योगों को धारण करनेवाले मुनीश्वर सम्पूर्ण वृक्षों को जोड़ से उखाड़नेवाली ऐसी वायु के कष्ट को सहन करते हैं। वनस्पति समूह को नष्ट करने में समर्थ ऐसी शीतं को तथा वन की सभी नदियों को व समुद्रों को सुखाने में समर्थ ऐसी उष्णता को सहन करते हैं । जो शरीर के समस्त अवयवों को सन्तप्त करनेवाली है ऐसी तृष्णा-प्यास की बाधा को तथा महाप्रलय काल में उत्पन्न हुई अग्नि के समान ऐसी जठराग्निस्वरूप भूख की बाधा को सहन करते हैं। उसी प्रकार डांसमच्छरों से किये गये उपद्रवों को तथा साँप, विच्छू, चिवटी, सूकर आदि वन-जन्तुओं द्वारा किए गये उपद्रवों को भी सहन करते हैं । अधिक कहने से क्या ? वे मुनि कर्मों का क्षय करते हुए सभी उपसर्ग समूहों को सहन करते हैं। अर्थात वे मुनि इन परीषह एवं उपसर्गों को तन्त्रमन्त्रों के निमित्त नहीं सहते हैं, न इहलोक के सुखों के लिए ही सहते हैं और न परलोक में भोगों की आकांक्षा से ही सहन करते हैं, किन्तु कर्मों के क्षय के लिए ही सहन करते हैं ऐसा समझना।
इस प्रकार से काय से उत्पन्न हुए क्लेश-सहन का निरूपण करके अब वचन से होने वाले क्लेश सहने का निरूपण करते हैं
गाथार्थ-दुर्जन के अत्यन्त तीक्ष्ण वचन, निन्दा के वचन, और शस्त्र के प्रहार को सहन करते हैं किन्तु वे क्षमागुण के ज्ञानी महर्षि मुनि क्रोध नहीं करते हैं ॥८६॥
____ आचारवृत्ति-दुष्ट जन को दुर्जन कहते हैं, उनके वचन सब प्रकार से अपवाद ग्रहण करनेवाले होते हैं ऐसे मिथ्यादृष्टि जनों के तीक्ष्ण और कठोर वचन जो कि तप्त हए लोहे के पीटने से निकलते हुए अग्नि के स्फुलिंगों के समान होने से जीव के सर्व आत्मप्रदेशों में सन्ताप को करनेवाले रहते हैं । ऐसे दुर्जन के वचनों को मुनि सहन कर लेते हैं किन्तु क्षोभ को प्राप्त नहीं होते हैं । पैशुन्य वचन-असत् दोषों को प्रगट करना या ढेले, डण्डे आदि से ताड़ित करना,
१. क० विसहन्ते।
२. क० कर्मक्षयं कुर्वाणाः।
३. क० नेहलोकसुख ।
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