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[ मुलाचारे
सहंते न च तेभ्य उपद्रवकारिभ्य: कुप्यन्ति, महर्षयः क्षमागुण विज्ञानका: श्रमणा: सर्वप्रकारैः सहनशीला: क्रोधादिवशं न गच्छन्तीति ॥८६॥
अन्यच्च
जइ पंचिदियदमनो होज्ज जणो रूसिवव्वय णियत्तो।
तो कदरेण कयंतो रूसिज्ज जए मणूयाणं ॥८७०॥ यदि पंचेन्द्रियदमक: पंचेन्द्रियनिग्रह रतो भवेज्जनस्तदा स रोषादिभ्यो निवृत्तश्च जनो भवेत्ततः कतरेण कारणेन कृतांतो मत्यू रुष्येत् कोपं कुर्याज्जगति मनुष्येभ्योऽथवा कृतांत आगमस्तत्साहचर्याद्यतिरपि कृतांत इत्युच्यते तत एवं संबंधः क्रियते यदि सामान्यजनोऽपि पंचेन्द्रियनिग्रहरतो भवेत्ततः रोषान्निवृत्त: क्रोधादिकं न करोति कृतांतो यतिः पुनः कतरेण कारणेन सूपद्रवकारिभ्यो मनुष्येभ्यो रुष्येत्कोपं कुर्यात् ? तस्मात्क्षमागणं जानता चारित्रं सम्यग्दर्शनं चाभ्युपगच्छता न रोषः कर्तव्यः ।।८७०॥ अन्यच्च
जदि वि य करेंति पावं एदे जिणवयणबाहिरा पुरिसा।
तं सव्वं सहिदव्वं कम्माण खयं करतेण ॥८७१॥ शस्त्र प्रहार-तलवार आदि से घात करना इत्यादि उपद्रवों को वे मुनि सहन कर लेते हैं किन्तु उन उपद्रव करनेवालों पर क्रोध नहीं करते हैं क्योंकि वे महर्षि क्षमागुण के ज्ञानी होने से सर्व प्रकार से सहनशील होते हैं अर्थात, ज्ञानी साधु क्रोध आदि कषायों के वशीभूत नहीं होते हैं।
और भी कहते हैं
गाथार्थ-यदि मनुष्य पंचेन्द्रिय को दमन करनेवाला होवे तो वह क्रोध आदि से छट जायेगा । पुनः इस जगत् में मनुष्यों पर किस कारण से यमराज रुष्ट होगा ? अर्थात् रुष्ट नहीं होगा ॥८७०॥
प्राचारवृत्ति-यदि मुनि पंचेन्द्रियों के निग्रह में तत्पर हैं तो वे क्रोध आदि कषायों से निवृत्त हो जावेंगे। पुनः इस जगत् में मनुष्यों पर किस कारण से मृत्यु कुपित हो सकेगी ? अर्थात जो इन्द्रिय विजयी हैं वे कषायों से रहित हो जाते हैं और तब मृत्यु से भी छूट जाते हैं । अथवा कृतान्त' अर्थात् आगम जिसके साहचर्य से यति को भी 'कृतान्त' ऐसा कहा जाता है । पुनः ऐसा सम्बन्ध करना कि यति सामान्यजन भी पंचेन्द्रियों के निग्रह में तत्पर होता है तो वह क्रोध आदि नहीं करता है, पुनः कृतान्त-यति भी उपद्रव करनेवाले मनुष्यों पर किस कारण क्रोध करेंगे ? अर्थात् चारित्र तथा सम्यग्दर्शन को स्वीकार करते हुए क्षमागुण को जाननेवाले मुनियों को क्रोध नहीं करना चाहिए यह अभिप्राय है ।
और भी स्पष्ट करते हैं
गाथार्थ-जिन मत से बहिर्भ त कोई मनुष्य यद्यपि पाप करते हैं तो भी कर्मों का क्षय करते हुए मुनि को वह सब सहन करना चाहिए।।८७१।।
१. कृतान्तागमसिद्धान्त ग्रन्थाः शास्त्र मतः परं । धनं०।
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