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अनगार भावनाधिकारः ]
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यद्यपि च पूर्वकर्मोदयवशात्कुर्वन्ति पापं वधबन्धनादिकं रौद्र कर्मेते जिनवचनबाह्याः पुरुषा मिथ्यात्वा संयमकषायाभिरताः सर्वमदगर्विताः; तत्सर्वमुपसर्गजातं सहनीयं सम्यग्विधानेनाध्यासितव्यमध्यासयेत् । कर्मणां क्षयं पूर्वाजित कर्मफलक्षयं कुर्वताऽऽत्मना सह कर्मणां विश्लेषं कुर्वता सम्यग्दर्शनादिभिरात्मानं भावयतेति ॥ ७१ ॥
पुनरपि कषायविजयमाह
ब्वा सम्यगवाप्येमं श्रुतनिधि द्वादशांग चतुर्दशपूर्वरत्ननिधानं व्यवसायेन चारित्रतपसोद्योगेन सह द्वितीयं तथा कुरुत तेन प्रकारेण यतध्वं यथा सुगतिचोराणां मोक्ष मार्गविनाशकानां कषायाणां वशं नोपेत तथा यतध्वं येषाञ्च रत्नत्रयविनाशकानां क्रोधादीनां वशं न गच्छन्तीति ।। ७२ ।।
लक्षूण इमं सुदहि ववसायविरज्जियं तह करेह । जह सुग्गइचोराणं ण उवेह वसं कसायाणं ॥ ८७२ ॥
तपः शुद्धिस्वामिनः प्रतिपादयन्नाह
पंचमहवयधारी पंचसु समिदीसु संजदा धीरा । पंचिदित्यविरदा पंचमगइमग्गया सवणा ||८७३॥
पंचमहाव्रतधारिणो जीवदयादिगुणकलिताः पंचसु समितिषु संयताः पंचसमिति संयुक्तास्तासु वा
आचारवृत्ति - जो जिन मत से बहिर्भूत हैं वे पुरुष मिथ्यात्व, असंयम और कषाय में तत्पर सर्व मद से गर्वित रहते हैं । वे यद्यपि पूर्व कर्मोदय के निमित्त से पाप-बध-बन्धन आदि रौद्र कर्म करते हैं तो भी मुनिराज को चाहिए कि सभी उपसर्गों को सम्यक् प्रकार से सहन करें । अर्थात् वे मुनि पूर्व संचित कर्मों के फल का क्षय करते हुए - अपनी आत्मा से कर्मों को पृथक् करते हुए सम्यग्दर्शन आदि गुणों के द्वारा अपनी आत्मा की भावना करें ।
पुनरपि कषायविजय को कहते हैं
गाथार्थ - - इस श्रुतरूपी निधि को प्राप्त करके वैसा व्यवसाय विशेष करो कि जिस से तुम सुगति के चुरानेवाले इन कषायों के वश में न हो जाओ । । । ८७२ ॥
आचारवृत्ति - द्वादशांग और चतुर्दश पूर्वं श्रुतज्ञानरूपी रत्ननिधान को सम्यक् प्रकार से प्राप्त करके व्यवसाय - चारित्र और तप के उद्यम के साथ-साथ तुम ऐसा दूसरा प्रयत्न करो कि जिससे मोक्षमार्ग के विनाशक इन कषायों के वशीभूत न हो जाओ । अर्थात् ऐसा कोई प्रयत्न करो कि जिससे रत्नत्रय के घातक इन क्रोधादि काषायों के आधीन नहीं होना पड़े । तपःशुद्धि के स्वामी का वर्णन करते हैं
गाथार्थ - पंचमहाव्रत धारी, पाँच समितियों में संयत, धीर, पंचेन्द्रियों के विषयों से विरक्त और पंचमगति के अन्वेषक श्रमण होते हैं - तपः शुद्धि करते हैं ||८७३ ॥
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श्राचारवृत्ति - जो पाँचमहाव्रतों के धारक हैं, जीवदया आदि गुणों से संयुक्त हैं, पाँच समितियों से अपने को नियन्त्रित किए हुए हैं अथवा उनमें व्यवस्थित हैं, धीर-अकंपभाव को
१. क० सिद्धिमार्ग - ।
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