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श्रच चम्मं च तहेव मंसं, पित्तं च सिंभं तह सोणिदं च । अमेज्भसंधाय मिणं सरीरं, पस्संति णिवेदगुणाणुपेहि ॥ ८५०॥ अणिण णालिणिबद्धं, कलिमलभरिवं किमिउलपुण्णं । मंसविलितं तयपछिण्णं, सरीरधरं तं सववमचोक्खं ॥ ८५१॥
अस्थीनि च चर्माणि च तथैव तेनैव प्रकारेण मांसं पित्तं श्लेष्मा तथा शोणितमित्येवंप्रकारैरमेध्यसंघातभूतमिदं शरीरं पश्यन्ति निर्वेदगुणानुप्रेक्षिणः, ये मुनयो देहसंसारभोग निर्वेदमापन्ना शरीरमेवंभूतं' पश्यन्तीति ॥ ८५०॥ तथा---
पूर्वग्रन्थेनोपकरणं प्रतिपादितं यत्तच्छरीरे नियोजयन्नाह अस्थिभिनिच्छादितं संवृतं नालिकाभिः शिराभिनिबद्ध संघटितं कलिमलभृतं सर्वाशुचिद्रव्यपूर्ण, कृमिकुलनिचितं, मांसविलिप्तं मांसेनोपचितं, त्वक्प्रच्छादितं दर्शनीयपथं नीतं, शरीरगृहं तत्सततं सर्वकालमचौख्य मशुचि, नात्र पौनरुक्त्यदोष आशंकनीयः पर्यायार्थिक शिष्यानुग्रहणादथवाऽमेध्यगृहं पूर्वं सामान्येन प्रतिपादितं तस्य वातिकरूपेणेदं तदाऽशुचित्वं सामान्येनोक्त तस्य च प्रपंचनार्थं वैराग्यातिशयप्रदर्शनार्थं च यत इति ॥ ८५१ ।।
ईदृग्भूते शरीरे मुनयः किं कुर्वन्तीत्याशंकायामाह -
[ मूलाचारे
गाथार्थ - वैराग्यगुण का चिन्तवन करनेवाले मुनि इस शरीर को हड्डी, चर्म, मांस, पित्त, कफ, रुधिर तथा विष्ठा इनके समूहरूप ही देखते हैं । हड्डियों से मढ़ा हुआ, नसों से बँधा हुआ, कलिमलपदार्थों से भरा हुआ, कृमिसमूह से पूरित, मांस पुष्ट, चर्म से प्रच्छादित यह शरीर हमेशा ही अपवित्र है । ।।८५०-८५१।।
आचारवृत्ति हड्डी, चर्म, मांस, पित्त, कफ तथा रुधिर इन अपवित्र वस्तुओं का समूह यह शरीर है । जो मुनि संसार शरीर, और भोगों से वैराग्य को प्राप्त हुए हैं वे इस शरीर को उपर्युक्त प्रकार अपवित्र पदार्थों के समूह रूप ही देखते हैं । इस गाथा से शरीर के उपकरणों का वर्णन किया है । अन् अगली गाथा से उनको इस शरीर में घटित करते हुए दिखाते हैं - यह शरीर हड्डियों से मढ़ा हुआ है। शिराजालों से बँधा हुआ है, सर्व मलिन पदार्थों से भरा हुआ है, कृमि समूहों से व्याप्त है, मांसरु लिप्त है। ऐसा होकर भी यह चर्म से प्रच्छादित है इसी लिए देखने योग्य हो रहा है किन्तु फिर भी यह शरीर सतत ही अशुचिरूप है ।
यहाँ पर पुनरुक्त दोष की आशंका नहीं करना, क्योंकि पर्यायार्थिक नयग्राही शिष्यों के अनुग्रह हेतु विशेष स्पष्टीकरण है । अथवा पूर्वगाथा में, यह शरीर अपवित्र पदार्थों का घर है ऐसा सामान्य कथन किया गया है उसी का वार्तिकरूप से यह विस्तार है । अर्थात् वहाँ पर अपवित्रपने को सामान्य से कहा है, उसी का विस्तार करने के लिए एवं अतिशय वैराग्य को प्रदर्शित करने के लिए यहाँ गाथा में कथन किया गया है ।
इस प्रकार के शरीर में मुनि क्या करते हैं ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं
१. क० मेवं पश्यन्तीति
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