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अनगारभावनाधिकारः ]
यस्मात्ते साधवो भवंति निर्विकाराः कायिकवाचिक मानसिक विकारैर्वजिताः स्तिमितमतयोऽनुद्धतचेष्टासंकल्पाः, प्रतिष्ठिता यथोदधिः समुद्र इवागाधा 'अक्षोभाश्च, नियमेषु षडावश्यकादिक्रियासु दृढव्रतिनोऽभग्नगृहीतनानावग्रहविशेषाः, पारत्र्यविमार्गकाः परलोकं प्रति सूद्यतस मस्तकार्या इहलोकं निरतिचारं परलोकं सम्यग्विधानेनात्मना परेषां च निरूपयंतीति ॥ ६१ ॥
कथंभूतास्तहि कथाः कुर्वन्तीत्याशंकायामाह -
जिणवयणभासिदत्थं पत्थं च हिदं च धम्मसंजुत्तं । समओवयारजुत्तं पारतहिदं कथं करेंति ॥ ८६२॥
जिनवचनेन वीतरागागमेन भाषितः प्रतिपादितोऽर्थो विषयो यस्याः सा जिनवचनभाषितार्था रत्नत्रयप्रतिपादनसमर्था तां कथां कुर्वते । पुनरपि पथ्यां हितां च धर्मसंयुक्तां समयोपचारयुक्तामागमविनयसहितां परलोकं प्रति हितां कुर्वते । यद्यपि विषयसुखविवर्जनेन कापुरुषाणामनिष्टा तथापि विपाककाले पथ्योषधवत् । तथा यद्यपि जीवप्रदेश संतापकरणेन' न हिता तथापि सम्यगाचरणनिरता । तथा यद्यपि विनयतन्निष्ठा तथापि श्रुतज्ञानप्रतिकूला न भवति तर्कव्याकरणसिद्धान्तचरितपुराणादिप्रतिपादिका वा कथा तां कुर्वत इनि ॥१८६२॥ ये कथामेवंविधां कुर्वन्ति ते किम्भूता इत्याशंकायामाह -
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आचारवृत्ति - क्योंकि वे साधु कायिक, वाचिक तथा मानसिक विकारों से रहित होते हैं, उनकी चेष्टाएँ तथा संकल्प उद्धतपने से रहित होती हैं । वे समुद्र के समान प्रतिष्ठित अगाध और क्षोभरहित होते हैं। छह आवश्यक आदि क्रियाओं में दृढ़ रहते हैं अर्थात् जो नियम ग्रहण करते हैं उनको कभी भग्न नहीं करते हैं । परलोक के प्रति समस्त कार्यों को करने में उद्यमशील होते हैं । इहलोक में निरतिचार आचार पालते हैं और परलोक के प्रति उनका सम्यक् प्रकार से अपने लिए तथा अन्य जनों के लिए निरूपण करते हैं ।
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तो पुनः वे मुनि किस प्रकार की कथाएँ करते हैं ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैंगाथार्थ - जिनागम में भाषित है अर्थ जिसका, जो पथ्य है, हितकर है, धर्म से संयुक्त है, आगमकथित उपचार - विनय से युक्त, परलोक के हितरूप - ऐसी कथाएँ वे मुनि करते हैं ॥८६२॥
आचारवृत्ति - वीतरागदेव के आगम से जिसका विषय प्रतिपादित किया गया है अर्थात् जो रत्नत्रय का प्रतिपादन करने में समर्थ है ऐसी कथा को वे मुनि करते हैं । यद्यपि विषयसुखों को त्याग कराने वाली होने से कायर पुरुषों को अनिष्ट है फिर भी जो विपाक के काल में गुणकारी है, पथ्य औषधि के समान वह कथा पथ्य कहलाती है । यद्यपि जीव के प्रदेशों में संताप का कारण होने से यह हितरूप नहीं लगती है फिर भी समीचीन आचरण से सहित होने से हित कर ही है। धर्म से संयुक्त है तथा समयोपचार - आगमकथित विनय से सहित है तथा परलोक के लिए हितकर है। अर्थात् यद्यपि विनय में निष्ठ है तो भी श्रुतज्ञान के प्रतिकूल नहीं है अथवा तर्क, व्याकरण, सिद्धान्त, चरित, पुराण आदि की प्रतिपादक ऐसी कथा मुनिजन करते हैं । जो ऐसी कथाएँ करते हैं वे मुनि कैसे होते हैं ? सो ही बताते हैं
१. क० अक्षोभ्याश्च । २. क० कारणेन ।
३. क० मेवंभूतां ।
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