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अनगार भावनाधिकारः ]
तथा
सुदरयणपुण्णकण्णा हे उणयविसारदा विउलबुद्धी । णिउणत्थसत्यकुसला परमपयवियाणया समणा । ८३५||
श्रुतमेव रत्नं पद्मरागादिकं तेन पूर्णो समलंकृतौ कर्णौ येषां ते श्रुतरत्नपूर्णकर्णाः । हेतुद्विविधो बहिर्व्याप्तिलक्षणोऽन्तर्व्याप्तिलक्षणश्च तत्र बहिर्व्याप्तिलक्षणस्त्रिविधः सपक्षे सत्वं विपक्षे चासत्वं पक्षधर्मत्वमिति । अन्तर्व्याप्तिलक्षण एकविधः, साध्याविनाभाव एकं लक्षणं यस्य स साध्याविनाभावकलक्षणः । यदंतरेण यन्नोपपद्यते तत्साध्यं, इतरत्साधनं । अन्यथानुपपत्तिर्व कल्यविशेषादसिद्धविरुद्धार्नकान्तिका हेत्वाभासाः । तत्र साध्येऽनु
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उसी प्रकार से और भी बताते हैं
गाथार्थ - जो श्रुतरूपी रत्न से कर्ण को भूषित करते हैं, हेतु और नय में विशारद हैं, विपुल बुद्धि के धारी हैं, शास्त्र के अर्थ में परिपूर्णतया कुशल हैं, ऐसे श्रमण परमपद के जानने वाले होते हैं । ।। ८३५।।
श्राचारवृत्ति - श्रुत ही है रत्न अर्थात् पद्मराग आदि मणियाँ, उनसे पूर्ण अर्थात् अलंकृत हैं कर्ण जिनके वे मुनि श्रुतरत्नपूर्ण कर्ण हैं अर्थात् उपर्युक्त गुणविशिष्ट मुनियों के कर्णं श्रुतज्ञानरूपी रत्नों से विभूषित रहते हैं । ये मुनि हेतु और नय में कुशल होते हैं, विपुल बुद्धि अर्थात् महामतिशाली होते हैं अथवा ऋजुमति और विपुलमति मन:पर्ययज्ञान के धारी होते हैं। सम्पूर्ण अर्थ कुशल होते हैं । सिद्धान्त, व्याकरण, तर्क, साहित्य, छन्द, अलंकार आदि शास्त्रों में कुशल होते हैं तथा मुक्ति के स्वरूप को जानने में परायण ऐसे श्रमण होते हैं ।
यहाँ हेतु और नयों का किंचित् व्याख्यान करते हैं
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तु के दो भेद हैं- बहिर्व्याप्तिलक्षण और अन्तर्व्याप्तिलक्षण । बहिर्व्याप्तिलक्षण हेतु के तीन भेद हैं- सपक्षसत्त्व, विपक्ष में असत्त्व और पक्ष धर्मत्व । अन्तर्व्याप्तिलक्षण हेतु एक प्रकार ही है । साध्याविनाभावी ऐसे एक लक्षणवाला होना अर्थात् साध्य के साथ अविनाभाव सम्बन्ध रखनेवाला हेतु अन्तर्व्याप्तिलक्षण कहलाता है । जिसके बिना जा उत्पन्न नहीं होता है वह साध्य है और इससे भिन्न साधन होता है । अर्थात् जंसे अग्नि के विना धूम सम्भव नहीं है अतः अग्नि साध्य है और धूम साधन है । जिसमें अन्यथानुपपत्ति लक्षण अन्तर्व्याप्ति नहीं हो उसे हेत्वाभास कहते हैं । उसके तीन भेद हैं-असिद्ध, विरुद्ध और अनेकान्तिक ।
असिद्ध हेत्वाभास के दो भेद हैं- साध्यानुपपत्तिरूप और अज्ञातासिद्ध । अर्थात् जो हेतु साध्य में नहीं रहता है वह आश्रयासिद्ध है । जैसे 'शब्द परिणामों है क्योंकि वह चक्षु इन्द्रिय से जाना जाता है, यहाँ चाक्षुषत्व हेतु शब्द में नहीं रहने से आश्रयासिद्ध है । जिसमें निश्चय नहीं होता वह अज्ञातासिद्ध है, जैसे मूढबुद्धि को धुआँ देखकर भो यहाँ अग्नि है ऐसा निर्णय नहीं होता चूंकि वह वाष्प आदि से धूम का पृथक् रूप से निर्णय नहीं कर पाता है। उससे विशेष – भिन्न हेतु अचित्कर है । अर्थात् जो हेतु प्रमाणान्तर से साध्य के सिद्ध होने पर दिया है तथा प्रमाणान्तर से साध्य के बाधित होने पर दिया जाता है वह अकिंचित्कर है, जैसे शब्द कर्ण से सुना जाता है क्योंकि वह कर्णेन्द्रिय का विषय है । यह हेतु निष्प्रयोजन होने से अकिंचित्कर कहलाता है । जो हेतु
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