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[ मूलाचारे
जह मज्झ तरि काले विमला अणुपेहणा भवेजण्ह ।
तह सव्वलोगणाहा विमलगदिगदा पसीदंतु॥७६८॥ यथा येन प्रकारेण मम तस्मिन्नंतकाले विमला अनुप्रेक्षा द्वादशप्रकारा भवेयुस्तथा ते सर्वलोकनाथा विमलगतिं गताः प्रसीदन्तु प्रसन्ना भवन्तु द्वादशानुप्रेक्षाभावनां मम दिशन्त्विति ॥७६८॥
इति श्रीमट्टकेराचार्यवर्यविनिर्मितमूलाचारे वसुनन्याचार्यप्रणीतटीकासहिते
द्वादशानुप्रेक्षकनामाऽष्टमः परिच्छेदः समाप्तः ।
गाथार्थ-जिस तरह अन्तकाल में ये विमल अनुप्रेक्षाएँ मुझे होवें उसी तरह विमल गति को प्राप्त हुए सर्वलोक के नाथ मुझ पर प्रसन्न होवें ।।७६८॥
प्राचारवृत्ति-जिस प्रकार से मेरे अन्तकाल में ये निर्मल अनुप्रेक्षायें मुझे प्राप्त होवें, उसी प्रकार से विमल स्थान को प्राप्त हुए तीन लोक के नाथ मुझ पर प्रसन्न होवें अर्थात् द्वादश अनुप्रेक्षा की भावना मुझे प्रदान करें। अर्थात् जिनेन्द्रदेव के प्रसाद से ये अनुप्रेक्षायें मुझे प्राप्त हों।
इस प्रकार वसुनन्दि आचार्य प्रणीत टीका सहित श्री वट्टकेराचार्यवर्यविनिर्मित मूलाचार में द्वादश-अनुप्रेक्षा-कथन नामक आठवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ।
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