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अनगारभावनाधिकारा]
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तथा
रतिचरसउणाणं णाणारुदरसिदभीदसद्दालं ।
उण्णावेति वणंतं जत्थ वसंता समणसीहा ७६३ ॥ रात्री चरन्तीति रात्रिचरा उलकादयस्तेषां शकुनानां नानारुतानि नानाभीतिशब्दांश्च अनमत्यर्थ उण्णाति उन्नादियंति प्रतिशब्दयन्ति वनांतं ववमध्यं, उद्गतशब्दं सर्वमपि वनं गह्वराटवीं कुर्वन्ति यत्र वसन्ति श्रमणसिंहा इति ॥७९३॥ तथा
सीहा इव णरसीहा पव्वयतडकडयकंदरगुहासु ।
जिणवयणमणुमणंता अणुविग्गमणा परिवसंति ॥ ७६४ ॥ सिंहा इव सिंहसदृशा नरसिंहा नरप्रधानाः पर्वततटकटके “पर्वतस्याधोभागस्य सामीप्यं तटं उध्वंभागस्य सामीप्यं कटक" पर्वततटकटककन्दरागुहासु जिनवचनमनुगणयन्तो जिनागमं तत्त्वेन श्रद्दधाना अनुद्विग्नमनस उत्कंठितमानसाः परि-समन्ताद्वसंतीति ॥७६४॥
तथा
उसी प्रकार से और भी कहते हैं
गाथार्थ-जहाँ पर श्रमण-सिंह निवास करते हैं, जहाँ पर रात्रिचर जन्तुओं के नाना शब्दों से भयंकर शब्द वन के अभ्यन्तर भाग को शब्दायमान कर देते हैं, वहाँ पर श्रमण-सिंह निवास करते हैं । ॥ ७६३ ॥
आचारवृत्ति-रात्रि में विचरण करने वाले उल्लू आदि रात्रिचर कहलाते हैं। उन पक्षियों के नाना प्रकार के भयंकर शब्द अतिशय रूप से वन के मध्य भाग को प्रतिध्वनित कर देते हैं । अर्थात् उन जीवों के उत्पन्न हुए शब्द सारे वन में गहन अटवी में व्याप्त हो जाते हैं, जहाँ कि वे श्रमण-सिंह निवास करते हैं । अर्थात् ऐसे भयावह स्थान में भी जो निवास करते हैं वे ही मुनि श्रमण-सिंह कहलाते हैं।
गाथार्थ-सिंह के समान नरसिंह महामुनि पर्वत के तट, कटक, कन्दराओं और गुफाओं में जिन-वचनों का अनुचिन्तन करते हुए अनुद्विग्न चित्त होकर निवास करते हैं। ॥७६४ ॥
प्राचारवृत्ति-पर्वत के अधो भाग के समीप का स्थान तट है और पर्वत के ऊर्ध्व भाग के समीप का स्थान कटक है। पर्वत पर जल से जो प्रदेश विदारित हो जाता है उसे कन्दरा कहते हैं, गुफायें प्रसिद्ध ही हैं। सिंह के समान निर्भय हुए मुनि-सिंह अर्थात् मनुष्यों में प्रधान महासाधु पर्वत के तट, कटक, कन्दरा और गुफाओं में रहते हैं । वहाँ पर वे जिनागम के तत्त्वों का चितवन करते हुए उत्कण्ठित रहते हैं, उद्विग्न कभी नहीं होते हैं।
उसी प्रकार से और भी बताते हैं
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