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यदि न याचंते किमात्मना किंचित् कुर्वतीत्याशंकायामाह -
पयणं व पायणं वा ण करेंति अणेव ते करावेंति । पयारंभणियत्ता संतुट्ठा भिक्खमेत्तरेण ॥८२१॥
पचनं स्वेनोदनादिनिर्वर्त्तनं पाचनं स्वोपदेशेनान्येन निर्वर्तनं न कुर्वति नापि कारयंति मुनयः, पचनारंभान्निवृत्ता दूरतः स्थिताः संतुष्टाः, भिक्षामात्रेण - काय संदर्शनमात्रेण भिक्षार्थं पर्यटंती ॥५२१॥
धमपि संनिरीक्ष्य गृह्ण तीत्येवं निरूपयन्नाह
असणं जदि वा पाणं खज्जं भोजं लिज्ज पेज्जं वा । पडिले हिऊण सुद्ध ं भुजंति पाणिपत्त सु ॥ ८२२ ॥
अशनं भक्तादिक, यदि वा पानं दुग्धजलादिकं, खाद्य लड्डुकादिकं, भोज्यं भक्ष्यं मंडकादिकं, ले मास्वाद्यं, पेयं स्तोकभक्तसिक्यपानबहुलं, वा विकल्पवचनः प्रतिलेख्य शुद्धं भुंजते पाणिपात्रेषु न भाजनादिष्विति ||८२२॥
अप्रासुकं परिहरन्नाह
यदि याचना नहीं करते हैं तो क्या वे स्वयं कुछ करते हैं ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं-
| मूलाचारे
गाथार्थ – वे भोजन पकाना या पकवाना भी नहीं करते हैं और न कराते हैं, वे पकाने के आरम्भ से निवृत्त हो चुके हैं, भिक्षा मात्र से ही सन्तुष्ट रहते हैं । ।। ८२१॥
आचारवृत्ति - पचन --- स्वयं भात आदि पकाना, पाचन - आप उपदेश देकर अन्य से पकवाना | ये कार्य मुनि न करते हैं और न कराते हैं । भोजन बनाने आदि के आरम्भ से वे दूर ही रहते हैं । काय को दिखाने मात्र से वे भिक्षा के लिए पर्यटन करते हैं । अर्थात् आहार के लिए भ्रमण करने में वे केवल अपने शरीर मात्र को ही दिखाते हैं किन्तु कुछ संकेत या याचना आदि नहीं करते हैं । वे भिक्षावृत्ति से ही सन्तुष्ट रहते हैं ।
प्राप्त हुए भोजन को भी वे अच्छी तरह देखकर ग्रहण करते हैं, इस बात को बताते हैं
गाथार्थ - अशन अथवा पान, खाद्य या भोज्य, लेह्य या पेय इन पदार्थों को देखकर शोधकर करपात्र में शुद्ध आहार को ग्रहण करते हैं । ।। ५२२||
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श्राचारवृत्ति - - अशन भात आदि, पान- दूध जल आदि, खाद्य - लड्डू आदि, भोज्य - खानेयोग्य माण्डे आदि, लेह्य-चाटने योग्य पदार्थ, पेय - जिसमें भोजन वस्तु स्वल्प है और पतली वस्तु अधिक है ऐसे ठण्डाई आदि पदार्थ । ऐसी किसी भी चीज़ को अपने अंजलिपात्र भलीभांति देखकर शुद्ध आहार ग्रहण करते हैं। वे भुनि बर्तन आदि में नहीं खाते हैं ।
अप्रासुक का परिहार करते हुए कहते हैं
१. क० निर्वर्तनमशनस्य
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