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[ मूलाधारे
तथा
उद्देसिय कीदयडं अण्णादं संकिदं अभिहडं च ।
सुत्तप्पडिकूडाणि य पडिसिद्धतं विवज्जति ॥८४१॥ औद्देशिक, क्रीतं, अज्ञातमपरिज्ञातं, शंकितं संदेहस्थानगत प्रासुकाप्रासुकभ्रान्त्या, अभिघटमित्येवमादि सूत्रप्रतिकूलं सूत्रप्रतिषिद्धमशुद्ध" च यत्तत्सर्वं विवर्जयंतीति ॥८१४।। भिक्षाभ्रमणविधानमाह
अण्णावमणुण्णादं भिक्खं णिच्चुच्चमज्झिमकुलेस ।
घरपंतिहि हिडंति य मोणेण मुणी समादिति ॥८१५॥ अज्ञातं' यत्र गृहस्थैः साधव आगमिष्यंति भिक्षार्थं नानुमतं स्वेन च तत्र मया गंतव्यमिति' नाभिभी ग्रहण नहीं करना चाहिए तथा ममत्व के आश्रयभूत स्वगृह में भी भोजन नहीं करना चाहिए।
भावार्थ-मुनि स्वगृह छोड़कर ही दीक्षा लेते हैं; पुनः उनके परिणाम में 'यह मेरा गृह है' ऐसा ममत्व नहीं रहता है । यदि रहे तो वहाँ आहार न लेवें। दीक्षा के बाद स्वगृह में भी आहार की पद्धति रही है। उदाहरण के लिए रानी श्रीमती सहित राजा वज्रजंघ ने अपने युगलपुत्र को महामूनि के वेष में आहार दिया था तथा देवकी ने अपने तीन युगलों को-युगल पुत्रों को तीन बार आहार दिया आदि । वर्तमान में भी साधु अपने घर में आहार लेते देखे जाते हैं। ऐसे साधुओं को स्वगृह का कोई ममत्व नहीं होता है। दाता का भी ऐसा भाव नहीं रहता कि ये मेरे हैं। अतः उनके द्वारा आहारदान का विरोध नहीं है । कदाचित् गृहस्थ को ऐसा ममत्व आ भी जाये, पर साधु को ऐसा कोई ममत्व नहीं होता।
उसी प्रकार से और भी बताते हैं
गाथार्थ-उद्देश अर्थात् दोष सहित, क्रीत, अज्ञात, शंकित, अभिघट दोष सहित, आगम के विरुद्ध आहार निषिद्ध है, ऐसा आहार मुनि छोड़ देते हैं ।।८१४॥
प्राचारवृत्ति-अपने उद्देश से बना हुआ आहार औद्देशिक है, उसी समय अपने हेतु खरीदकर लाया गया आहार क्रीत है, स्वयं को मालूम नहीं सो अज्ञात है, यह प्रासुक है या अप्रासुक ऐसे संदेह को प्राप्त हुआ आहार शंकित है, सात पंक्ति से अतिरिक्त आया हुआ अभिघट इत्यादि दोष युक्त, आगम के प्रतिकूल जो अशुद्ध आहार है उन सबका मुनि वर्जन कर देते हैं।
आहार हेतु भ्रमण का विधान बताते हैं
गाथार्थ-दरिद्र, धनी या मध्यम कुलों में गृहपंक्ति से मौनपूर्वक भ्रमण करते हैं और वे मुनि अज्ञात तथा अनुज्ञात भिक्षा को ग्रहण करते हैं ।।८१५॥
आचारवृत्ति-साधु भिक्षा के लिए मेरे यहाँ आयेंगे ऐसा जिन गृहस्थों को मालूम नहीं १. व सूत्रप्रतिसिद्ध च यत्। २. द अज्ञाना। ३. टिप्पणी में 'मया गन्तव्यं' ऐसा पाठ है।
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