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अनगारभावनाधिकारः
अनगारभावनाख्यं नवममधिकार' व्याख्यातुकामस्ताबदादौ शुभपरिणामनिमित्तं मंगलमाह
वंदित्तु जिणवराणं तिहुयणजयमंगलोववेदाणं ।
कंचणपियंगुविद्दुमघणकुंदमुणालवण्णाणं ॥७६६॥ जिनवरान् वंदित्वा, किविशिष्टान् ? त्रिभुवने या जयश्रीर्यच्च मंगलं सर्वकर्मदहनसमर्थ पुण्यं . ताभ्यामुपेतास्तत्र स्थितास्तास्त्रिभुवन जयमंगलोपेतान् प्रकृष्टश्रिया युक्तान् सर्वकल्याणभाजनांश्च । पुनरपि
अनगार भावना नामक नवम अधिकार का व्याख्यान करने के इच्छुक आचार्य सबसे प्रथम शुभ परिणाम निमित्त मंगलसूत्र कहते हैं
गाथार्थ-सुवर्ण, शिरीषपुष्प, मूंगा, धन, कुन्दपुष्प और कमलनाल के समान वर्णवाले त्रिभुवन में जय और मंगल से युक्त ऐसे तीर्थंकरों को नमस्कार करके, मैं अनागार भावना को कहूँगा ॥७६९॥
आचारवृत्ति-त्रिभुवन में जो जयश्री और जो मंगल है, अर्थात् सम्पूर्ण कर्मों को दहन करने में समर्थ पुण्य अर्थात् शुद्धोपयोग रूप परिणाम है उससे एवं जो इन जयलक्ष्मी और मंगल से सहित हैं, उसमें स्थित हैं वे त्रिभुवन के जयमंगल से युक्त हैं। अर्थात् जो प्रकृष्टलक्ष्मी से
१. फलटन से प्रकाशित मूलाचार में 'अनगार भावना' यह आठवां अधिकार हैं और 'द्वादशानुप्रेक्षा' यह नवम अधिकार है। फलटन से प्रकाशित मूलाचार में इस गाथा का प्रथम, द्वितीय चरण बदला हुआ है। यथा
___णमिऊण जिणवरिन्दे तिहुवणवरणाणदंसण-पदीवे ।
कंचणपियंगु-विदुम-घणकुन्दमुणालवण्णाणं ।। -जो अपने अनन्त ज्ञानदर्शनरूप दीपक से विभुवन को प्रकाशित करनेवाले हैं, जिनके देह का वर्ण सुवर्ण, शिरीष, मूंगा, कुन्दपुष्प ओम कमलनाल के समान है, ऐसे वृषभादि चोबीस तीर्थंकरों का वन्दन करकेफलटन से प्रकाशित मूलाचार में यह गाथा अधिक है
णाणज्जोवयराण लोगालोगह्मि सव्वदव्वाणं ।
खेत्तगुणकालपज्जय विजाणगाणं पणमियाणं ।। -जो सर्वजगत में ज्ञान के उद्योत को धारण करते हैं, जो सर्व जीवादि द्रव्यों के क्षेत्र, काल और पर्यायों को जानते हैं, ऐसे गणधरों में श्रेष्ठ चौबीस तीर्थंकरों को वन्दन कर चक्रवर्ती आदि से वन्दनीय सर्वपरिग्रहरहित महर्षियों के भावना निमित्त मैं अनगार सूत्र को कहूंगा।
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