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अत्यं कामसरीरादियं पि सव्वमसुभत्ति णादृण । निव्विज्जतो भासु जह जहसि कलेवरं असुइं ॥ ७२७॥
अर्थं स्त्रीवस्त्रादिकं कामं मैथुनादिकं, शरीरादिकमपि सर्वमशुभमिति जगति ज्ञात्वा निर्वेदं गच्छं ध्यायस्व चिन्तय यथा 'जहासि कुत्सितकलेवरमशुचि, शरीरखं राग्यं च सम्यक् चितयेति ॥ ७२७॥ अशुभानुप्रेक्षां संक्षेपयन्नाह -
मोत्तूण जिक्खादं धम्मं सुहमिह दु णत्थि लोगम्मि । ससुरासुरे तिरिएसु णिरयमणुएसु चितेज्जो ||७२८ ||
ससुरासुरेषु नरक तिर्यङ्मनुष्येषु जिनख्यातं धर्मं मुक्त्वा शुभमिहान्यन्नास्ति, एवं चिन्तयेत्, लोके धर्ममन्तरेणान्यच्छुभं न भवतीति जानीहि ॥७२८ ॥
आवानुप्रेक्षां प्रकटयन्नाह -
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[ मूलाचारे
दुक्खभयमीणपरे संसार महण्णवे परमधोरे । जंतू जं तु णिमज्जदि कम्मासवहेदुयं सव्वं ॥ ७२६॥
गाथार्थ - अर्थ, काम और शरीर आदि ये सभी अशुभ हैं ऐसा जानकर विरक्त होते हुए जैसे अशुचि शरीर छूट जाय वैसा ही ध्यान करो ।। ७२७ ॥
श्राचारवृत्ति -- अर्थ - स्त्री, वस्त्र आदि; काम - -मैथुन आदि, और शरीर आदि ये सभी अशुभ हैं। ऐसा इस लोक में जानकर उनसे निर्वेद को प्राप्त होते हुए ध्यान करो । अर्थात् जिस प्रकार से यह कुत्सित शरीर छोड़ सकते हो, उसी प्रकार से शरीर के वैराग्य का और संसार के वैराग्य का अच्छी तरह से चितवन करो ।
अशुभ अनुप्रेक्षा को संक्षिप्त करते हुए कहते हैं
गाथार्थ - जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित धर्म को छोड़कर सुर-असुर, तिर्यंच, नरक और मनुष्य से सहित इस जगत् में कुछ भी शुभ नहीं है ।।७२८ ||
श्राचारवृत्ति - सुर असुरों से सहित, तथा तिर्यंच, नारकी और मनुष्यों से संयुक्त इस संसार में जिनेन्द्रदेव के धर्म को छोड़कर और कुछ भी शुभ रूप नहीं है, ऐसा समझो। यह अशुभ अनुप्रेक्षा हुई।
भावार्थ-- अन्यत्र तत्त्वार्थसूत्र आदि ग्रन्थों में अशुचि अनुप्रेक्षा ऐसा नाम है, किन्तु यहाँ इसे 'अशुद्ध' ऐसा नाम दिया है। सो नाम मात्र का ही भेद है । अर्थ में प्रायः समानता है । वहाँ अशुचिभावना में केवल शरीर आदि सम्बन्धी अपवित्रता का चिन्तन होता है तो यहाँ सर्व अशुभ- दुःखदायी वस्तुयें - धन, इन्द्रिय-सुख आदि तथा शरीर आदि सम्बन्धी अशुभपने का विचार किया गया ।
आस्रव अनुप्रेक्षा को प्रगट करते हैं
गाथार्थ - दुःख और भय रूपी प्रचुर मत्स्यों से युक्त, अतीव घोर संसार रूपी समुद्र में जीव जो डूब रहा है वह सब कर्मास्रव का निमित्त है || ७२६||
१. जहासि त्यजसि द०
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