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द्वादशानुप्रेक्षाधिकारः]
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नादधःप्रवत्तिकरणः । अपूर्वापूर्वशुद्धतराः करणा: परिणामा यस्मिन् कालविशेषे स्युरसावपूर्वकरणः परिणामः । एकसमयप्रवर्तमानानां जीवनां परिणामैन विद्यते निवृत्ति दो यत्र सोऽनिवत्तिकरण इति । एवं क्रियां कृत्वाऽनंतानुबंधिक्रोधमानमायालोभप्रकृतीनां सम्यक्त्वसम्यङ मिथ्यात्वमिथ्यात्वप्रकृतीनां चोपशमादुपशमसम्यक्त्वबोधिर्भवति । तथा तासामेव सप्तप्रकृतीनां क्षयोपशमात् क्षायोपशमिकसम्यक्त्वबोधिर्भवति। तथा तासामेव सप्तानां प्रकृतीनां क्षयात् क्षायिकसम्यक्त्वं भवति । एवमतिदुर्लभतरां त्रिप्रकारां बोधि लब्ध्वा भव्यपूण्डरीको भव्योत्तमस्तपसा संयमेन च युक्तोऽक्षयसौख्यं ततो लभते सर्वद्वन्द्वविनिर्मुक्तः सिद्धिमधितिष्ठतीति यतो बोध्यां सर्वोऽपि जीवः सिद्धि लभते ॥७६२।।
तम्हा अहमवि णिच्चं सद्धासंवेगविरियविणएहिं । अत्ताणं तह भावे जह सा बोही हवे सुइरं ॥७६३॥
अथवा उनके द्वारा उपदिष्ट पदार्थों को ग्रहण करने, धारण करने और उनके विषय में विचार करने की शक्ति का होना देशनालब्धि है।
४. सर्वकर्मों की उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभाग को घटाकर उनका अन्तः कोटा-कोटी सागर में स्थापन कर द्विस्थानरूप-(लता दाख रूप) अनुभाग स्थान करना प्रायोग्यलब्धि है।
५. पाँचवीं करणलब्धि है। उसके तीन भेद हैं-अधःप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण।
__ऊपर में स्थित परिणामों से अधःस्थित परिणामों की समानता और अधःस्थित परिणामों से ऊपर स्थित परिणामों की समानता जिस अवस्था विशेष के समय होती है उस काल में अधःप्रवर्तन होने से अधःप्रवृत्तिकरण कहते हैं। जिस काल में अपूर्व-अपूर्व शुद्धतर करणपरिणाम होते हैं वह अपूर्वकरण परिणाम है। एक समय में प्रवृत्त हुए जीवों के परिणामों में भेद नहीं होता है उसे अनिवृत्तिकरण कहते हैं।
इस प्रकार तीन करण रूप क्रिया करके अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार प्रकृतियों तथा सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और मिथ्यात्व इन तीन प्रकृतियों केऐसी सात प्रकृतियों के उपशम से उपशमसम्यक्त्व बोधि होती है। इन सातों प्रकृतियों के क्षयोपशम से क्षयोपशमसम्यक्त्व बोधि होती है तथा इन्हीं सात प्रकृतियों के क्षय से क्षायिकसम्यक्त्व लब्धि होती है।
इस तरह अति दुर्लभतर तीन प्रकार की बोधि को प्राप्त करके जो भव्योत्तम तपश्चरण और संयम से युक्त हो जाता है वह भव्य उस चारित्र के प्रसाद से अक्षय सौख्य प्राप्त कर लेता है। अर्थात् वह जोव सर्वद्वन्द्व से रहित होकर सिद्धिपद को प्राप्त कर लेता है; क्योंकि बोधि से ही सभो जोव सिद्ध होते हैं, बिना बोधि के नहीं।
अब आचार्य अपनी भावना व्यक्त करते हैं
गाथार्थ-इसलिए मैं भो श्रद्धा, संवेग, शक्ति और विनय के द्वारा उस प्रकार से आत्मा को भावना करता हूं कि जिस प्रकार से वह बोधि चिरकाल तक बनी रहे ॥७६३।।
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