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रह-रहकर प्रतिध्वनित हो रही है कि तट के उन डेरों की ओर से घुड़सवारों की एक टुकड़ी हवा पर उछलती हुई घाटियों में कूद गयी।
__ परेशान-सी वसन्तमाला भागती हुई आयी । चाहकर भी वह अपने को रोक नहीं सकी-बोली
"अंजन, कुमार पवनंजय प्रस्थान कर गये। अपने सैन्च को साथ लेकर वे अकेले ही चल दिये हैं-"
बीन का तार जैसे टन्न...से अचानक टूट गया, भटकती हुई वह झंकार रोम-रोम में झनझना उठी है। पता नहीं यह आघात कहाँ से आया। बेबूझ, अपार विस्मय से अंजना की वे अबोध आँखें वसन्त के चेहरे पर बिछ गयीं । अपने बावजूद वह बसन्त से पूाछ उठी
"कारण?"
"ठीक कारण ज्ञात नहीं हो सका। पर एकाएक मध्यरात में महाराज प्रसाद के पास सूचना पहुँची कि कुमार कल सूर्योदय के पहले अकेले ही प्रस्थान करेंगे; अपनी सेनाओं को उन्होंने कूच की आज्ञाएँ दे दी हैं। उसी समय अनचर भेजकर पहाराज ने कुमार को बुलवाया, पर वे अपने डेरे में नहीं थे। शाम को ही जो वे गये, तो फिर नहीं लौटे। उनके अन्यतम सखा प्रहस्त से केवल इतना ही पता चला है कि पवनंजय के रोष का कारण कुछ गम्भीर और असाधारण है। इस बार वे भी उनके मन की थाह ने ले सके हैं और पूछने का साहस भी ये नहीं कर सके।" .
"क्या पिताजी को यह संवाद मिल गया है, वसन्त ?"
"हाँ, अभी जो अश्वारोहियों की टुकड़ी गयी है, उसी में महाराज आदित्यपुर के महाराज प्रहाद के साथ कुमार को लौटा लाने गये हैं।"
अंजना ने वक्ष में निःश्वास दबा लिया। किसी अगम्य दूरी में दृष्टि अटकाये गम्भीर स्वर में बोली
"चौंधकर मैं उन्हें नहीं रखना चाहूँगी, बसन्त ! जाने को ये दिशाएँ खुली हैं उनके लिए। पर संयोग की रात जब लिखी होगी, तो द्वीपान्तर से उड़कर आएँगे, इसमें मुझे जरा भी सन्देह नहीं है। पगली वसू, छिः आँसू? अंजना के भाग्य पर इतना अविश्वास करती हो, वसन्त ?"
कहते-कहते अंजना ने मुँह फेर लिया और वसन्त का हाथ पकड़ उसे कक्ष में खींच ले गयी।
कृष्ट दूर जाकर ही अचानक विराम का शंख बज उठा। सैन्य का प्रवाह थम गया। रथ को रात्त रखींचकर पवनंजय ने पीले मुड़कर देखा । कौन है जिसने कमार पवनंजय 31 :: मुक्तिदृत