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इन सारे जुलूसों को जो अपने भीतर तदाकार और विद्रूप कर लेना चाहती है। देश की दीवारों में वह बन्दिनो टकरा रही है, पछाड़ें खा रही है। और ऊपर मणि-माणिका की नानावर्णी प्रथा में माया को चित्रलीला अविराम चल रही है। संसार चक्र सतत गतिशील है- ।
कि लो, रात के चौघे पहर की नौबत बज उठी। प्रश्नचिह्न-सी सजग, अपने आप में चिन्मय लौ-सी बाला अंजना वातायन में बेटी है; इसके ब वह नितान्त निराधार, असहाय और अकेली है-निज रूप में रमणशील रेलिंग पर से उठकर उसके पास जाने की वसन्त की हिम्मत नहीं है।... देखते-देखते पश्चिम के वानीर- वनों में चाँद पाण्डुर होता दीख पड़ा। तारे क्षीण होकर डूबने लगे शयनकक्ष के दीपाधारों में सुगन्धित तेलों के प्रदीप मन्द हो गये। धूप दानों पर कोई विरल धूम्र-लहरी शून्य में उलझी रह गयी है।
केवल मणि-द्वीपों की म्लान, शीतल विभा में वह विपुल भोग- सामग्रियों से दीप्त सुहाग को उत्सव-रात्रि कुम्हला रही हैं। अस्पर्शित शय्या की चम्पक-कचनार सज्जा मलिन हो गयी । कुन्द पुष्पों की मसहरी जल-सीकरों में भीगकर झर गयी है। पूजा की सामग्री ठुकरायी हुई, हतप्रभ शून्य उन थालों में उन्मन पड़ी है। सब कुछ अनंगीकृत, अवमानित, विफल पड़ा रह गया। पुजारिणी स्वयं चिर प्रतीक्षा की प्रतिमा बनी झरोखे में बैठी रह गयी है। एक गम्भीर पराजय, अवसन्नता, म्लानता चारों ओर फैली है!
और भीतर कक्ष की शय्या पर आत्मा की अग्नि-शिखा नग्न होकर लोट रहो
है ।
सन्ध्या में सीढ़ियों पर बिछाये गये प्रफुल्ल कुमुदिनियों के पाँचड़े अछूते ही कुम्हला गये ! पर वह नहीं आया इस सुहाग-रात्र का अतिथि नहीं आया ! और लो, राज प्रांगण की प्राचीरों के पार लाम्रचूड़ बोल उठा ।
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राजपरिकर में बिजली की तरह खबर फैल गयी - "देव पवनंजय ने नवपरिणीता युवराज्ञी अंजना का परित्याग कर दिया !"
और दिन चढ़ते-न-चढ़ते सम्पूर्ण आदित्यपुर नगर इस संवाद को पाकर स्तब्ध हो गया । उत्सव को धारा एकाएक भंग हो गयो। प्रातःकाल ही राजमन्दिर से लगाकर नगर के चारों तोरणों तक बाघ, गीत-नृत्य की जो मंगलध्वनियाँ उठने लगी थीं, वे अनायास एक गम्भीर उदासी में डूब गर्मी प्रज्ञा द्वारा सात दिन के लिए आयोजित विवाहोत्सव के उपलक्ष्य में नगर में जहाँ-तहाँ तोरण, मण्डप, वेदियाँ रची गयी थीं
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48 :: मुक्तिदूत