Book Title: Muktidoot
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 207
________________ ही शोभित हैं, पर उसके गवाक्षों के कपाट रुद्ध हैं, उनसे नहीं बरस रही हैं फूलों की राशियाँ, नहीं बह रही हैं संगीत की सुरावलियों, नहीं उठ रही हैं सुगन्धित धूम्र-लहरें। उस महल का अलिन्द शून्य पड़ा हैं।...झपटते हुए कुमार सौध की सीढ़ियाँ चढ़ द्वार के पास पहुँच गये... | विशाल द्वार के काँसे के कपाट रूद्ध हैं, उनकी बड़ी-बड़ी अर्गलाओं में ताले पड़े हुए हैं। द्वारपक्ष में चिपकी, मंगल का पूर्णकलश लिये खड़ी वह तन्वंगी, विश्व की सम्पूर्ण करुणा और विषाद को आँखों में भरकर फिर मसकरा उठी।-पवनंजय के मस्तिष्क में लाख-लाख बिजलियों तड़तड़ाकर टूट पड़ीं। चारों ओर उमड़ता रानी जनसमा भार ख. सारा और भय से स्तम्भित होकर, पत्थर-सा थमा रह गया। क्षण मात्र में हर्ष का सारा कोलाहल निस्तब्ध हो गया। भीतर-भीतर त्रास की सिसकारियाँ फूट उठीं, पर उससे भी अधिक अचरज से सबकी आँखें फटी रह गयौं। ...कुमार ने लौटकर देखा : दोनों ओर खामोश खड़ी-प्रतिहारियों की आँखों में आँसू झलक रहे थे। कुमार की आँखों के मूक प्रश्न के उत्तर में, ये कुहनियों तक दीर्घ हाथ जोड़कर नत हो गयीं। भाले के फल-सा एक तीक्ष्ण प्रश्न कुमार की छाती में चमक उठा । एक गहरी शंका हृदय को बींधने लगी। होठ खुले रह गये-पर प्रश्न शब्दों में न फूट सका । अनजाने ही विजेता का वह किरीटबद्ध ललाद, द्वार के कपाटों से जा टकराया...। प्रतिहारियाँ और जनसमूह हाय-हाय कर उठा । कुमार की आँखों में प्रलयंकर अन्धकार की बडिया उमड़ पड़ी। सारे अन्तःपुर में संवाद बिजली की सरह फैल गया। उन्मत्त की तरह झपटते हुए कुमार माता के महल की ओर पैदल ही चल पड़े। ललाट से रक्त चू रहा है और तीर के वेग से वे चले जा रहे हैं। उलटे पैरों पीछे धसककर जनसमूह ने राह छोड़ दी। किसकी सामर्थ्य है जो उस कुमार को थाम ले। प्रतिहारियाँ उसके पथ में पाँबड़े बिछाने की सुध भूल गयीं, और आँचल में मुँह दाँककर सिसकने लगीं। महारानी केतुमती शृंगार-आभरणों में सजी, अपने प्रासाद के अलिन्द-तोरण में खड़ी हैं। स्वर्ण के थाल में अक्षत-कंकम और मंगल का कलश सजाये, उत्सुक आँखों से वे बाट जोह रही हैं, कि अपूर्व विजय का लाभ लेकर आये पुत्र के भाल पर ये अभी-अभी जय का टीका लगाएँगी। उनकी गोद फड़क रही है, कि वर्षों के रूठे पुत्र को आज वे एकान्त रूप से पा जाएँगी 1 अभी-अभी उनके कान तक भी वह उपर्युक्त संवाद अस्पष्ट रूप से पहुँच चुका था। सुनकर वे सिर से पैर तक थर्रा उठी हैं, पर विश्वास नहीं हो रहा है। कि इतने ही में झंझा के झोंके की तरह पवनंजय सामने आकर खड़े हो गये। पसीने में सारा चेहस लथपथ है-और भाल पर यह बहते कुंकुम का जय-तिलक मों से पहले किसने लगा दिया...? और अगले ही क्षण दीखा, बहता हुआ रक्त...' मुक्तिदूत :: 217

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