Book Title: Muktidoot
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 226
________________ दृश्य रह गया था, वह भी तो पूरा होकर ही रहना था। पवनंजय के गृहागमन का संवाद और अंजना को घर न पाकर उसी रात उनके गृहत्याग का संवाद साथ-साथ ही हनुरुहट्टीप पहुं। : जिसूर्य रे नाच कनीने के पहले ही अविससुर जाकर उनकी प्रतीक्षा करनी चाही थी, पर अंजना ने उन्हें नहीं आने दिया। यह भी दैव का विधान ही तो था...! सोच में पड़ गये कि कहाँ जाएँ और कैसे पवनंजय को खोजें.... तब उन्होंने अंजना की एक न सुनी। उसके उस समय के दारुण दुरल में उसे छोड़, रज का हृदय कर, पहले वे महेन्द्रपुर गये और वहाँ से फिर आदित्यपुर गये। क्रम-क्रम से दानों सन्तप्त राजकुलों को जाकर अंजना की कुशल और पुत्र-जन्म का संवाद सुनाकर ढाढस बंधाया। फिर राजा महेन्द्र, राजा प्रह्लाद, मित्र प्रहस्त आदि को लेकर चे पवनंजय की खोज में निकल पड़े। दूर-दूर तक पृथ्वी के अनेक देश-देशन्तर, द्वीप-दीपान्तर, विकट वन-पहाड़ों में वे पवनंजय को खोज आये पर कहीं कोई पता न चला। सुयोग की बात कि अपने उसी भ्रमण में हताश और सन्तप्त, आज वे इस भू-तरुवर नाम के वन में विश्राम लेने उतरे थे। चलते-चलते राह में अचानक एक पिट्टी के स्तूप का हिलते हुए देखा... पहले तो बड़े कौतूहल ते देखते रह गये। पर जब दीखा कि कोई मनुष्य इस मिट्टी के ढेर में गड़ गया हैं और अब निकलने की चेष्टा कर रहा है, तभी प्रतिसूर्व ने जाकर ऊपर की मिट्टी हटायी और पकड़कर उस मनुष्य को उठाने लगे। एकाएक उस व्यक्ति का चेहरा दिखाई पड़ा, जो इतने दिनों मिट्टी में दब रहने पर भी वैसा ही स्निग्ध और कान्तिमान् था, राजा प्रसाद देखते ही पहचान गये-चिल्ला उठे-“पवनंजय...!" ...सुनते-सुनते पवनंजय को ध्यान आया कि तभी शायद पिता का परिचित कण्ठ-स्वर सुनकर वे चौंक उठे थे...! ___..समुद्र-पवन का स्पर्श पाकर, कुमार ने यान की खिड़की से झाँका। राजा प्रतिसूर्य ने उँगली के इशार से बताया-समुद्र की अपार नीलिमा के बीच ज्जले शंख-सा पड़ा है वह हनुरुहद्वीप। उसके आस-पास व्यवसायी जहाजों के मस्तल और नावों के पाल उड़ते दीख पड़ रहे हैं। तटवर्ती हरी-भरी पहाड़ी में धीवरों और मल्लाहों के ग्राम दीख रहे हैं, और उड़ते हुए जल-पाछी द्वीप के भवन-शिखरों पर से पार हो रहे हैं... 35 हनुरुहद्वीप में राजप्रासाद के सर्वोच्च खण्ड की छत पर अंजना का कक्ष- । सामुद्रिक हवा के झकोरे उस प्रवाल-निर्मित, मत्स्याकार कक्ष के बिलौरी गवाक्षों पर खेल रहे थे। ५30 :: मुक्तिदूत

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