________________ लोक-मोहन कामदेव का रूप देकर तुम्हें जन्म दिया है।-जाओ उसी के पास, यही तुम्हें निखिलेश भी बनाएगी..." प्रकट में हाथ बढ़ाते हुए बोल-. "लो अंजन, इसे झेलने की सामथ्र्य मुहामें नहीं है...चुप क्यों खड़ी रह गयीं-देखोगी नहीं...? हाँ........समझ रहा हूँ-मेरी आन्तम हार का आत्म-निवेदन मेरे हो मुँह से सुनना चाहती हो-1 अच्छी बात है, तो लो, सुनो : मेरी भुजाओं में वह बल नहीं है जो इसे थाम सके, मेरे बक्ष में वह सहारा नहीं है जो इसे रोककर रख सके!-वह तो तुम्हारे ही पास हैं!..लो अंजन!" कहकर पवनंजय ने बालक को अंजना की ओर फैला दिया। एक अभूतपूर्व मुग्ध लज्जा से अंजना विभोर हो गयी। नीची ही दृष्टि किये उसने वालक की अपनी बाँहों पर झेल लिया और उसी क्षण पवनंजय के चरणों में रख दिया। जाने कब एक समयातीत मुहूर्त में अंजना और पवनंजय, अशेष आलिंगन में बँध गये। .....प्रकृति पुरुष में लीन हो गयी, पुरुष नवीन प्रकृति में व्यक्त हो उठा। झरोखों की जालियों में दीख रहा है : आकाश के तटों को तोड़ती हुई समुद्र की अनन्त लहरें, लहराती ही जा रही है..लहराती ही जा रही हैं, साल और गोर ...जाने किस ओर...? जाने किस ओर... DOD 23 :: मुक्तिदृत