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रमणियाँ उसके देश और उसके घर का पता पूछने लगतीं; उसके बारे में अनेक गोपन जिज्ञासाओं से उनका मन भर आता। निरीह और अज्ञान कलाकार बड़ी ही वेबस और दीन हसी हँस देता। निर्दोष और विचित्र पहेलियों भरी आँखों से वह उनकी ओर देखता रह जाता। वह कहता कि घर...:-घर तो उसका कहीं नहीं है-जिस झाड़ के नीचे, जिस मनुष्य के द्वार पर वह रात बिता देता है-वही उसका घर है। राह के संगी ही उसके आत्मीय हैं-ये मिलते हैं और बिछड़ भो जाते हैं। धरती और आसमान के बीच सब कहीं उसका देश है-। कहाँ से आया है और कहाँ जाएगा, सो तो वह स्वयं भी नहीं जानता है- | महलों के सुख में बेसुध रहनेवाली वधुएँ और कन्याएँ, आत्मा के चिरन्तन विछोह से भर आती। कलाकार उनको सहानुभूति और ममता-माया का बन्दी बनाकर राज-चित्रशाला में बन्द कर दिया जाता। उससे कहा जाता कि लब और जैसी उसके जी में आए चित्रसारी करे और वहीं रहे; अपनी मनचाही यस्तु वह माँग ले। नाना भोजन-व्यंजन और वसन-भूषण ले, एक-एक कर वे चुपके-चुपके आती। उसका मन और उसकी चितवन अपनी ओर खींचने की जाने कितनी चेष्टाएँ अनजान में कर जातीं। उसका एक बोल सुनने को घण्टों तरसती
खड़ी रह जाती। पर विचित्र है या कालायर -जानेला ? मो-साम्माँ विफल पड़ी रह जाती हैं। राजांगनाओं के सारे हाव-भाव, लीला-विभ्रम निरर्थक हो जाते हैं। वह तो आँख उठाकर भी नहीं देखता है। अन्यमनस्क और भ्रमित-सा चित्रशाला के अलिन्द-वातायन में बैठा वह क्षितिज ताका करता है । तो कभी-कभी वहाँ की विशाल दीवारों पर के बहुमूल्य चित्रों पर सफ़ेदा पोतकर उनपर अपनी ही विचित्र सूझ के धबीले चित्र बनाया करता है। इन चित्रों में न कोई तारतम्ब है और न कोई सुनिश्चित आकृति ही है। फिर भी एक ऐसा प्राण का प्रकाश उनके भीतर है कि प्रत्येक मन के संवेदनों के अनुरूप परिणत होकर ये धब्बे, जाने कितनी कथाएँ कहने लगते हैं। उनमें पृथ्वी, आकाश, नदी, पहाड़, वृक्ष, पशु-पक्षी, मनुष्य सय कल्पना के अनुसार अपने आप तैर आते हैं। ___और एक दिन पाया जाता है कि चित्रशाला शून्य पड़ी है और कलाकार चला गया है! अपने साथ वह कुछ भी नहीं ले गया है-साथ लायी वस्तुएँ भी नहीं-! द्वार-कक्ष में उसकी पादुकाएँ भी वैसी ही पड़ी रह गयी हैं-- । दीवार के उन धबीले चित्रों के प्रसार को जब अन्तःपुर की रपणियाँ ध्यान से देखने लगी, तो उस रंग-रेखाओं के विशाल आवरण में, प्रकृति की विविध रूपमयता का पूँघट ओढ़े एक अनन्यतमा सुन्दरी की भावभंगिमा डालक जाती है-धे रमणियाँ दाँतों तले उँगली दाब लेतीं। एक अचिन्त्य वेदना से उनका हृदय भर आता है। अपने-अपने कक्ष के दर्पण के सामने जा अपना रूप निहारती हैं-और उस सौन्दर्य की झलक अपने भीतर पाने को तरस-तरस जाती हैं!
राह चलता प्रवासी ग्राम के किसी कृषक अथवा ग्वाले के यहाँ नौकरी कर
208 :: मुक्तिदूत