Book Title: Muktidoot
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 223
________________ ... दिन पर दिन बीतते जाते हैं। उसकी सुषुप्ति गम्भीर से गम्भीरतर हो रही है। बाहर से बिलकुल विजड़ित होकर वह मिट्टी के घने और विपुल आवरणों में सो गया है। ऊपर से बन - जूही और कचनार के फूल निरन्तर उस माटी के स्तूप पर झरते रहते हैं। उसकी बाहर झाँकती अलकों में सौरभ से मूच्छित साँप, बेसुध उलझे पड़े रहते हैं। देश-देश के मिट्टो, जल, वन, फल-फूल की गन्ध लेकर पवन आता है-कानों में. लीक के नाना सुख-दुख, विरह-मिलन की बातां निरन्तर सुनाया करता है। बी दिन पर दिन बीतते चले जाते हैं- पर पवनंजय की योगनिद्रा नहीं टूट रही है । ... एक वासन्ती प्रभात के नये आलोक में, एक चिर परिचित स्पर्श से सिहर कर उसने आँखें खोली...देखा : राशि-राशि फूलों का अवगुण्ठन हटाकर प्रिया का वही मुसकराता मुख सामने था - बोली - "जागो ना... रात बीत गयी है...।" विस्मित और विमुग्ध, मतिहारा होकर वह देखता रह गया चारों ओर नव-नवीन पुष्पों और फलों से आनत, नव-नवीन सुख-सुधमा और सौरभ से मण्डित अनेक सृष्टियाँ खिल पड़ी हैं। अनावृत और अनाविल सौन्दर्य का सहस्रदल कमल फूटा है-और मुसकरातो हुई प्रिया उसका एक-एक दल खोल रही है। . आनन्द से आँखें मींचकर फिर पवनंजय ने एक गहरी अँगड़ाई भरी और उठ बैठे 1 सिर से पैर तक शरीर मिट्टी, तृण और वनस्पतियों से लथपथ है। आंखें मसलकर खोलने पर पाया कि वे वास्तविक लोक में हैं। - दिनों की गहन विस्मृति का आवरण, हठात् आँखों से परे हट गया। वही परिचित वन खण्ड, वही वृक्ष और दूर पर वही गिरिशृंग हैं जहाँ से लुढ़ककर वह यहाँ आ पड़ा था। पर वन में वासन्तिका छिटकी है। दृष्टि उठाकर उसने अपने आस-पास देखा; चार-पाँच मनुष्याकृतियां खड़ी हैं। बाहर के इस आलोक से उसकी आँखें अभी चुँधिया रही हैं। उसे कुछ-कुछ परिचित चेहरों का आभास हुआ, पर वह ठीक-ठीक पहचान नहीं पा रहा है। अपने इन चर्म चक्षुओं पर जैसे उसे विश्वास नहीं रहा है। इतने ही में उसे लगा कि उसे पकड़कर कोई उठा रहा है-. " पवनंजय...!" ... परिचित कण्ठ ! विद्युत् के एक झटके के साथ पनवंजय को स्पष्ट दीखा, सामने पिता खड़े हैं। उनकी बगल में खड़े हैं राजा महेन्द्र और प्रहस्त । मानसरोवर के विवाहोत्सव के बाद राजा महेन्द्र को आज ही देखा है, पर पहचानने में देर न लगी। दूर पर दो-एक परिचित राज-सेवक खड़े हैं। उधर एक और दो यान पड़े हैं। फिर मुड़कर अपने उटानेवाले की ओर देखा । उस अपरिचित चेहरे को वे ताकते रह गयें, पर पहचान न सके । I प्रतिसूर्य हँसकर स्वयं ही अश्रु कण्ठ ते बोले "... चौंको नहीं बेटा, सचमुच तुम मुझे नहीं जानते। मैं हूँ अंजनी का मामा प्रतिसूर्य, हनुरुहद्वीप का राजा। अंजना और तुम्हारा आयुष्मान पुत्र मेरे घर सकुशल मुक्तिदूत : 233

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