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वह नदी की धारा में इबकी लगा जाता। उसके बढ़ते हुए प्रवाह को अपने भीतर समा लेने को वह गचलता रहता। रात-रात-मर वह भास रोककर नदी की धारा में पड़ा रहता और तारों भरे आकाश की ओर ताका करता। सवेरे के फूटते आलोक में पाता कि ऊपर फैली है. अन्तहीन शुन्य की वही निश्चिह्न और अथक नीलिमा!
और आसपास स्वर्ण-परियों-सी चपल लहरें, हँसतो वलखाती उसका मजाक करती हुई चली जा रही हैं-? फिर झुंझलाकर प्रवासी आगे चल पड़ता।
दिन-दिन कुमार का उन्माद संज्ञा से परे होता चला। हृदय की गोपन-व्यथा अब छुपाये न प सकी । लोकालय के द्वार-द्वार घूमकर, एक स्वर्ग च्यत देवकुमार-सा मलिनवेशी पुत्रा, अंजना नामा राजकुमारी की दुखवार्ता सुनाने लगा। पूछता कि क्या उनके घर कभी वह आयी थी? श्या ऐसे रूप और ऐसे वेश में, उस दीर्घ-केशी प्रिया को उन्होंने कहीं देखा है? क्या उसके कन्धे पर कोई शिशु था? पूछते-पूछते वह वित्रित पन्थी रो देता और भाग निकलता- । लोग उसके पीछे दौड़कर उसे पकड़ना चाहते, पर देखते-देखते वह दृष्टि से ओझल हो जाता।-पक्नंजय की दिगन्त-जविनी कीर्ति लीक में सूर्य की तरह प्रकाशित हो गयी थी। आदित्यपुर की कलंकिता और निर्वासिता राजनधू की करुणकथा भी घर-घर में लोग आँसु भरकर कहते-सुनते थे। भेद खुलने में देर न लगती- । जन-जन के मुँह पर उड़ता हुआ, देश-देश और द्वीप-द्वीप में, अंजना की खोज में भटकते पवनंजय का वृत्त फैल गया...।
समय का भान भूलकर बौं निर्लक्ष्य भ्रमण करते पवनंजय को महीनों बीत गये। उत्ते निश्चय हो गया कि मनुष्य की जगती में अंजना कहीं नहीं है। वह उसका अज्ञान था और उसकी भून थी कि उसी लोकालय में वह उसे खोजता रहा, जहाँ के नीति-नियम और व्यवस्था में संजना को कोई स्थान नहीं था ।...नहीं...उसने नहीं स्वीकारा होगा अब इस देह की कारा को- | जिस देह में जन्म लेकर परित्यक्ता, कलंकिता और निर्वासिता होकर. सारे जगत का तिरस्कार ही उसे मिला है, अवश्य ही उस देह के सीमा-बन्धनों को तोड़कर अब वह चली गयी होगी अपनी ही मुक्ति के पथ पर | उस अनाया और निःसहाय गर्मिणो ने निरन्तर दुख के आघातों से जर्जर होकर, अवश्य ही किसी विजन एकान्त में प्राण त्याग दिये होंगे- ।
...वह निकल पड़ा निर्जन वनखण्डों में। कुलाचलों के उच्छेद करने की बात उसे भूल गयी है। ग्रह-नक्षत्रों को गतियाँ उलटने का दावेदार वीर्य निर्वेद और निस्तरंग होकर सो गया है। विजयोद्धत होकर कई बार उसने इस पृथ्वा को गंधा है, लोधा है, पार किया है। पर आज उत्ते जीतने का भाव उसके मन में नहीं है। पात्र में शस्त्रास्त्र नहीं हैं, यान भी नहीं है और कोई वाहन भी नहीं है। -विद्याओं का बल, भुजाओं का बल और लोक का हदय जीतनेवाली महामहिम गरिमा-सब कुछ विस्मरण हो गया है। सव ऋछ धुल और मिट्टी होकर पैरों में पड़ा है.- | नितान्त पराभूत, असहाय, निरुपाय, एक निरीह और अनाध बालक-मा बह भटक रहा है।
23 :: मुक्तिदूत