Book Title: Muktidoot
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 219
________________ लेता। दोपहरी में गाय-भेड़ चसने किसी पहाड़ की हरी-भरी तलहटी में चला जाता। उन चौपायों को आँखों में आँखें डाल उनसे मनमानी बातें करता। उनकी निरीह मूक दृष्टि की भाषा को यह समझ लेता। गले और मुजाओं में भर-भरकर उनसे दुलार करता, घण्टों उनके लोमों को सहलाया करता। कभी पहाड़ की चोटी पर चला जाता और वहाँ किसी दुर्गम ऊंचाई पर वनस्पतियों की सुरभित छाया में बैठकर वंशी बजाता। उस तान के दर्द से जड़-चेतन हिल उठते! आसपास के जंगली युवक-युवतिहाइ के हाल में इधर उधर का आसे, और अपनी जगह पर चित्र-लिखे से रह जाते। प्रवासी को अपनी अधमुंदी आँखों से सजल रोओं में दीखता-अनेक विलक्षण जीव-जन्तुओं को सृष्टि उसके पैरों के आसपास घिर आयी है, भाल है तो नीलगाय भी है, कहीं व्याघ्र हैं तो हिरण भी है, झाड़ की हाल में मयूर आ बैठा है तो पैरों तले की बॉबी से भुजंगम भी निकल आया है। भयंकर और सुन्दर, अबल और सवल सभी तरह के जीव अभय और विमुग्ध होकर वहाँ मिल बैठे हैं। और वंशी बजाते-बजाते वह स्वयं जाने कब गहरी सुषुप्ति में अचेत हो जाता । साँझ पड़े जब नींद खुलती तो चौपायों को लेकर घर लौट आता । दो-चार दिन टिका न टिका और किसी आधी रात उठकर फिर प्रवासी आगे बढ़ जाता। राह के नाम-नगरों के बाहर पनघट, घाट और सरोवर के तीर बैठ वह जादूगर बनकर चमत्कार दिखाता । देश-देश की अद्भुत वाताएँ सुनाता, विचित्र और दुर्लभ वस्तुएँ दिखाता। भान भूलकर पुर-वधुएं और ग्राम-रमणियाँ आसपास घिर आतीं। मोहित और केित चे देखती रह जाती। आकुल और वातुल नयनों से प्रवासी जादूगर सबको हेरता रह जाता। उनकी नीलायित आँखों के सम्मोहन में प्रिया की छवि तैरकर खो जाती। उसकी आँखें आँसुओं से भरकर दूर पर थमी रह जाती। उसे दीन, आश्रयहीन और आत्मीयहीन जान, रमणियाँ मन ही मन व्यथित हो जाती। जादूगर अपनी चीज्ञ-यस्तु समेर पोटली कन्धे पर टॉग, अपनी राह चल पड़ता। सहानुभूति ते भरकर वे बधुएँ अपने कण्ठहार और मुद्रिकाएँ उसके सामने डालकर कहतीं-"जादूगर, हमारी भेंट नहीं लोगे?" प्रवासी मौन और 'भाव-शून्य पीठ फेरकर अपने गध पर बढ़ता ही जाता। आभरण धूल में मिलते पड़े रह जाते। स्त्रियाँ सजल नयन ताकती रह जातीं। जल का घट उठाकर घर लौटने का जी आज उनका नहीं है। क्या करके वे इस प्रयासों को आश्रय दे सकती हैं? ...पर निर्मम प्रवासी उनके हृदय हरकर चला ही जाता। चलते-चलते सन्ध्या हो जाती। मलिन और पीले आलोक में नदी की शीर्ण रेखा दिखाई पड़ती। उसके निर्जन तीर पर जाकर वह नदी के जल में अपनी छाया देखता। देश-देश की धूप-छाया, सख-दुख और मनीचाता लेकर यह नदी चली आ रही है।...जाने कब किस निस्तब्ध दुपहरी में बम-तुलसी से छाये इस घाट में बैठकर उसकी प्रिया ने जल पिया होगा; इस नदी की धारा में उतरकर बह नहायो होगी- । निविड़ सम्मोहन से भरकर मुक्तिदूत :: ५५

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