Book Title: Muktidoot
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 212
________________ रहा है। शीतकाल की ही कंपा देनेवाली हवाएँ विरहिणी के रुदन-सी दिगन्त में भटक रही हैं। पोड़ो की टापों से अलग जाघाडी उस गुंजान शून्य को विदीर्ण कर रहे हैं। दूर-दूर से शृगालों और वन- पशुओं के समन्वित रुदन की पुकारें रह-रहकर सुनाई पड़ती हैं। कहीं किसी खेत की मेंड़ पर कोई कुत्ता ढीठ स्वर में भूक उठता है। सुदूर अन्धकार में किसी ग्राम के घर का एकाकी दीप झलक जाता है। प्रिया के बाहुपाश का ऊष्म आश्वासन हृदय को गुदगुदा देता है। तभी कहीं राह के किसी पुरातन वृक्ष की कोटर में उल्लू बोल उठता है। - अश्वारोहियों के माथे पर से कोई नीड़हारा एकाकी पंछी श्लथ पंखों से उड़ता हुआ निकल जाता है। दूर जाकर सुनाई पड़ती है उसकी आर्त और विकल पुकार । दोनों अश्वारोहियों के मनों के बीच एक अथक शक्ति का स्रोत बह रहा है। उनके सारे संकल्प-विकल्प खोकर, उसी मौन प्रवाह के अंश बन गये हैं। पर इस संक्रमण में पवनंजय नितान्त अकेले पड़ गये हैं। धरती उलटकर उनके माथे पर घूम रही है, और तारों भरे आकाश का अथाह शून्य उनके अश्व की टापों तले फैल गया है। ग्रह-नक्षत्रों के संघर्षो में उनकी राह रुँध जाती है। -प्राण का अस्त्र फेंककर वे घोड़े को एड देते हैं। एक नक्षत्र को पीछे ठेलकर वे दूसरे पर जा चढ़ते हैं। देखेगा, वह कौन शक्ति है, जो आज उसकी राह रोकेगी! .... सवेरे काफ़ी धूप चढ़ने पर महेन्द्रपुर के सीमास्तम्भ के पास आकर वे दोनों अश्वारोही उत्तर पड़े। मार्ग से परे हटकर, एक एकान्त वृक्ष के नीचे जाकर उन्होंने बिराम लिया। दूर पर महेन्द्रपुर के प्रासादशिखरों की उड़ती पताकाएँ दीख रही हैं। एक साध-भरी वेदना की उत्सुक और विधुर दृष्टि से पवनंजय उस ओर देखते रह गये। फिर एक दीर्घ निश्वास होठों में दबाकर बोले - " जाओ भाई प्रहस्त, मेरे पाप-पुण्यों के एकमेव संगी, तुम्हीं जाओ। - जाकर देवी से कहना, कि अपराधी इस बार फिर चरम अपराध लेकर आया है-प्राण का भिखारी बनकर वह उसके द्वार पर खड़ा है। यह भी कहना कि अब इस अपराध की आवृत्ति नहीं होगी - उसके मूलोच्छेद का संकल्प लेकर ही पवनंजय इस बार आया है! मुझे विश्वास है, वह नटेगी नहीं, रोष भी नहीं करेगी। इनकार तो वह जानती ही नहीं है, वह तो देना ही जानती है। जाओ भैया जल्दी से जल्दी मेरा जीतव्य लेकर लौटो..." कहकर पवनंजय वृक्ष के तने के सहारे जा बैठे। प्रहस्त ने फिर घोड़े पर छलाँग भरी और नगर की राह पकड़ी। सैनिक ने पास के वृक्षों के मूल में दोनों घोड़े बाँध दिये और स्वामी की आज्ञा में आ बैठा । नगर- तोरण के बाहर की एक पान्यशाला में जाकर प्रहस्त घोड़े से उतर पड़े। घुड़साल में घोड़ा बाँधकर एक मृत्य के द्वारा पान्यशाला के रक्षक को बुला भेजा । रक्षक के आने पर उसे एक ओर ले जाकर उन्होंने उसे कुछ स्वर्ण मुद्राएँ भेंट कीं 222 मुक्तिदूत ::

Loading...

Page Navigation
1 ... 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228