Book Title: Muktidoot
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 211
________________ में मिला है। पवनजा में लय में किए जा. का भापत हुआ। अन्तर्भेदी स्वर में कुमार पुकार उठे "उठो, प्रहल्त, उठो-देर हुई तो ब्रह्माण्ड विदीर्ण हो जाएगा। लोक-कल्याण की तेज-शिखा बझ गयी है। आनन्द का यज्ञ भंग हो गया है, और मंगल का कलश फूट गया है। जीवन की अधिष्ठात्री हमें छोड़कर चली गयी है... | जल्दी करो प्रहस्त, नहीं तो लोक की प्राणधारा छिन्न हो जाएगी। मेरी आँखों में कल्पान्त काल का प्रलयंकर रुद्र ताण्डव-नृत्य कर रहा है-नाश की झंझा-रात्रि चारों ओर फैल रही है, प्रहस्त, सृष्टि में विप्लव के हिलोरे दौड़ रहे हैं। इस ध्वंसलीला के बीच, जल्दी-से-जल्दी उस.अमृतमयी, प्राणदा को खोज लाकर, उसे विधात के आसन पर प्रतिष्ठित करना है। वही होगी नवीन सृष्टि की अधीश्वरी! उसी के धर्म-शासन का भार वहन कर हमारा पुरुषत्व और वीरत्व कृतार्थ हो सकेगा!-प्रस्तुत होओ मेरे आत्म-सखा...!" फिर माँ की और लक्ष्य कर बोले "रोओ मत माँ, मेरे पाप का प्रायश्चित्त मुझे ही करने दो-। जल्दी बताओ, निर्वासित कर तमने उसे कहाँ भेजा है...' रानी ने धरती में मुंह डुबाये ही उत्तर दिया"महेन्द्रपुर...उसके पिता के घर।" "उठो प्रहस्त, अश्वशाला में चलकर तुरत वाहन प्रस्तुत करो, चिन्ता का समय नहीं है।" प्रहस्त उठकर चले गये। कुछ देर दूत-पग से कुमार, कक्ष में इधर से उधर टहलते रहे--फिर तुरत झपटते हुए कक्ष से बाहर हो गये। माँ और पिता बेकाबू होकर रो उठे और जाकर पुत्र के चरण पकड़ लिये।-झटके के साथ पैर छुड़ाकर पवनंजय द्वार के बाद द्वार पार करते चले गये। राह में प्रतिहारियों और राजकुल की महिलाओं ने अपने वक्ष बिछाकर उनकी राह रोकनी चाही, कि उस पर पैर धरकर ही वे जा सकते हैं। पवनंजय एक झटका-सा खाकर रुक गये, पीछे लौटकर देखा, और दूसरे ही क्षण रेलिंग फाँदकर अलिन्द के छज्जे पर जा उत्तरे और अपलक नीचे कूद गये...! महल में हृदय-विदारक सदन और विलाप का कोहराम मच गया। चारों ओर से प्रतिहार और सेवक दौड़ पड़े, पर राजांगन में कहीं भी कुमार का पता न चला। रात की असूझ तमसा को चीरते हुए दो अश्वारोही, प्रभंजन के वेग-से महेन्द्रपुर की ओर बढ़ रहे हैं। आगे-आगे दीर्घ मशाल लेकर एक मार्गदर्शक सैनिक का घोड़ा दौड़ मुक्तिदूत :: 221

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