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पान्यशाला में पहुंचकर प्रहस्त ने बिना विलम्ब किये अश्व कसा। अंजना के सम्बन्ध में और भी जो कुछ बै रक्षक से जान सकते थे-वह जान लिया। फिर नियतिदूत की तरह कठोर होकर घोड़े पर सवार हो गये और नगर-सीमा की राह पकड़ी।
प्रहस्त को दूर पर आते देख, अधीर पवनंजय उठकर आगे बढ़ आये। मित्र का उदास और फर चेहरा देखकर पवनंजय के हृदय में खटका हुआ। अपनी जगह पर ही वे ठिठक रहे।
घोड़े से उतरकर प्रहस्त दर पर ही गड़े-से खड़े रह गये। माथा छाती में फँसा जा रहा है। वक्ष पर दोनों हाथ बँधे हैं। और टप-टपू आँसू टपककर भूमि पर पड़
व्यग्र और कम्पित स्वर में पवनंजय ने पूछा"प्रहस्त...यह...क्या?"
और होठ खुले रह गये। सिर उठाकर भरी आले कण्ठ को कठिन कर तीव्र स्वर में प्रहस्त बोले
"कहूँगा भाई...कहूँगा...हृदयों को बींधने के लिए ही विधाता ने मुझे अपना दूत बनाकर धरती पर भेजा है!...अपनो नाम्यलिपि का आन्तम सन्देश सुनो, पवन । त्यक्ता और कलंकिनी अंजना के लिए पित-गृह का द्वार भी नहीं खुल सका। आज से पांच महीने पहले एक सन्ध्या में वह यहाँ आयी थी। पिता ने मुँह देखने से इनकार कर दिया। पितृ-द्वार से ठुकरायी जाकर बह जाने कहाँ चली गयी है, सो कुछ ठीक नहीं है। पिता से छुपाकर, मों के अनुरोध से उसके सारे भाई गुप्त रूप से दूर-दूर जाकर उसे खोज आये, पर कहीं भी उसका पता न चला। महेन्द्रपुर के राज्य में अंजना का नाम लेने पर प्राण-दण्ड की आज्ञा घोषित कर दी गयी है पवन...!"
प्रलयकाल के हिल्लोलित समुद्र के बीच अचल मन्दराचल की तरह स्तब्ध पवनंजय खड़े रह गये- । प्रहस्त आँखें उठाकर उन्हें देखने का साहस न कर सके। जाने कितनी देर बाद एक दीर्घ निःश्वास सुनाई पड़ा। गम्भीर वेदना के स्वर में पवनंजय बोले_ “सच ही कह रहे हो, सखे....मुझ पामर को यह स्पर्धा-कि अपने इंगित पर मैं उसे पाना चाहता हूँ?-उसे देवी कहकर अपनी चरण-दासी बनाये रखने का मेरा वंचक अभियान अभी गला नहीं है। अक्षम्य है मेरा अपराध, प्रहस्त, उसे पाने की बात दूर, मैं उसकी छाया छूने के योग्य भी नहीं हूँ। इसी से वह चली गयी है मयों के इस माया-लोक से दूर...बहुत दूर..."
कुछ देर चुप रहकर कुमार फिर बोले"...अच्छा प्रहस्त, जाओ-अत्र तुम्हें कष्ट नहीं दूंगा। जिस लोक में सती के
224 :: मुक्तिदूत