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और कहा कि वह साथ चलकर उन्हें राज-अन्तःपुर के द्वारपाल से मिला दे। उन्होंने उससे यह भी कह दिया कि राजमार्ग सं न जाकर व नगर-परकार के रास्ते से ही वहाँ तक पहुंचना चाहेंगे। रक्षक ने यथादेश प्रहस्त को अन्तःपुर के सिंह-तोरण पर पहुँचा दिया, और उनके निर्देश के अनुसार द्वारपाल को जाकर सूचित किया कि कोई विदेशी राजदूत किसी गोपनीय काम को लेकर उनसे मिलना चाहता है। द्वारपाल ने तुरन्त प्रहस्त को बुला भेजा। यथेष्ट लोकाचार के उपरान्त, प्रहस्त ने एकान्त में चलकर कुछ गुप्त वार्तालाप करने की इच्छा प्रकट की। द्वारपाल पहले तो सन्दिग्ध होकर, कुछ देर उनकी अवज्ञा करता रहा, पर प्रहस्त के व्यक्तित्व को देखकर उनका अनुरोध टालने की उसकी हिम्मत न हुई।-एकान्त में जाकर प्रहस्त ने अपना पन्तव्य प्रकट किया। बताया कि वे आदित्वपर के राजा प्रसाद के गुप्तचर हैं, और महाराज का एक अत्यन्त निजी और गुप्त सन्देश वे युवराज्ञी अंजना के लिए लाये हैं, वे स्वयं ही उनसे मिलकर अपना सन्देश निवेदन किया चाहते हैं, अतएव बड़ा अनुग्रह होगा यदि वे तुरत उन्हें युवराज्ञी के पास पहुँचा सकें-- | कहकर अपने गले से एक मुक्ता की एकावली उतारकर उन्होंने भेंट स्वरूप द्वारपाल के सम्मुख प्रस्तुत की।
द्वारपाल सुनकर सन्नाटे में आ गया... | उसने अपने दोनों कान भींच लिये। एक गहरी भीति और आश्चर्य की दृष्टि से पहले वह सिर से पैर तक प्रहस्त को देखता रहा। फिर शंकित और आतंकित्त दबे स्वर में बोला
__ ..विदेशी युवक, तुम मुझे धोखा नहीं दे सकते। साफ़ है कि तम झुठ बोल रहे हो तुम आदित्यपुर के दूत कदापि नहीं हो सकते । मूर्ख, तुम्हें यह भी नहीं मालूम कि कलंकिनी अंजना श्वसुर-गृह और पित-गृह दोनों ही से तज दी गयी है-! उस बात को भी कई महीने बीत गये। सावधान विदेशी, अपने प्राण प्यारे हों तो इस नगर की सीमा छोड़कर इसी क्षण यहाँ से चले जाओ। इस राज्य में यह आज्ञा घोषित हो चुकी है कि कोई भी नागरिक यदि पुंश्चली अंजना को शरण देगा या उसकी चर्चा करता पाया जाएगा, तो यह प्राणदण्ड का पात्र होगा।-चुपचाप यहाँ से चले जाओ, फिर भूलकर भी किसी के सामने अंजना का नाम न लेना..."
उलटे पैर प्रहस्त लौट पड़े। उनका मस्तक चकरी की तरह घूम रहा था। राह में रक्षक के कन्धे पर हाथ रख वे अन्धाधुन्ध चल रहे थे। लगता था कि पैर शून्य में पड़ रहे हैं। नेतना चुक जाना चाहता है। यह निष्ठूर वार्ता भी अपनी इसी जबान से पवनंजय की जाकर सुनानी होगी-? हाय रे दुर्दैव, पराकाष्ठा हो गयी। नहीं, इस शरीर में अब यह भीषण कृत्य कर सकने की शक्ति नहीं रह गयी है। यह संवाद लेकर पवनंजय के सामने जाने की अपेक्षा, वे राह की किसी वापी में डूब मरना चाहेंगे। पर अगले ही क्षण लगा कि वे क़ायर हो रहे हैं। दुख से भयभीत और कातर होकर, इस प्राणान्तक आघात के सम्मुख मित्र को अकेला छोड़कर भागने का अपराध उनसे हो रहा है।
मुक्तिदूत :: 225