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लगे। पर माता पृथ्वी भी सुनकर मानो निस्पन्द और निष्प्राण हो गयी है; निर्मम होकर वह राजा के ट्रक-टूक होते हृदय को कठिन अवरोध से ठेल रही है। लगता है कि बुक्का फाड़कर वे रो उठे और जो अपने इस पापी जीवन का वे अन्त कर लें। पर नहीं, इस क्षण वह इष्ट नहीं है- | मरणान्तक कष्ट पुत्र के हृदय को जकड़े हुए है। राजा की प्रत्येक श्वास में पुत्र का दुख शूलों-सा चुभ रहा है। जीवन में, मरण में, लोक में, परलोक में कहों मानो राजा को स्थान नहीं है।
रानी सुनकर वजाहत-सी बैठी रह गयी। देखते-देखते वह प्रेतिनी-सी विवर्ण और भयानक हो उठी है। उसकी आँखें फटकर मानी अभी-अभी कोटरों से निकल पड़ेंगी। उन पुतलियों का प्रकाश जैसे बुझ गया है। अचानक दोनों हाथों के मुक्कों से रानी ने छाती पीट ली, माथा पलंग की पटारेयों पर दे मारा। आकाशभेदी रुदन गले में आकर घुट रहा है। कुछ बस न चला, तो अपने केशों और अंगों को उसने नोच-नोच लिया। प्रतिहारियों ने रानी को सँभाला, और प्रहस्त ने राजा को उठाकर तल्प के उपधान पर लिटा दिया। धीमे और व्याकुल स्वर में इतना ही कहा-"शान्त राजन, शाना-कप्ट की यह पई बन गयी है....भीर होने से बहुत बड़ा अमंगल घट जाएगा!" राजा और रानी कलेजा थामकर अपने भीतर क्षार-क्षार हो
कि इतने ही में हलकी-सी कराह के साथ पवनंजय ने आँख खोली- | माथे के नीचे की गोदी का परस अनुभव कर बोले
...आह तुम...तुम आ गयीं रानी...वल्लभे...प्राणदे...तुम...?" और पुतलियाँ ऊपर की ओर चढ़ाकर देखा “ओ...माँ..तुम?...और कहाँ है वह...लक्ष्मी?" एकाएक पवनंजय उठ बैठे और आँसुओं से धुलते माँ के उस क्षत-विक्षत चेहरे को क्षण भर स्तब्ध-से ताकते रह गये-। फिर दोनों हाथों से उस विठ्ठल मुख को झकझोरकर उद्विग्न कण्ठ से फूट पड़े___"ओह माँ...यह क्या हो गया है तुम्हें ?...और वह कहाँ है माँ...बोलो, जल्दी बोलो...लक्ष्मी कहाँ है? यदि पत्र का कल्याण चाहती हो तो उसे मुझसे न छुपाओ-उसी ने मुझे प्राणदान दिया हैं कि आज मैं जी रहा हूँ। उसी ने मुझे शक्ति दी है कि मैं त्रिलोक की विजय-लक्ष्मी का वरण कर लाया हूँ-केवल उसके चरणों की दासी बना देने के लिए...! तुम नहीं जानती हो माँ-उस सौभाग्य-रात्रि की वार्ता-बह सब मैं तुम्हें अभी कहंगा ।...पर पहले उसे बुलाओ माँ...तुम नहीं, वही इन प्राणों को रख सकेगी।...उसे जल्दी बुलाओ माँ...नहीं तो देर हो जाएगी...!"
पुत्र के कन्धे पर माथा डालकर सनी छाती तोड़कर रो उठी। कुछ देर रहकर पवनंजय के उस पगले मुख को अपने वक्ष में दोनों हाथों से दबा लिया, फिर कठोर आत्म-विडम्बन के होट स्वर में बोली
"...सुन चुकी हूँ बेटा, सब सुनकर भी जीवित हूँ मैं हत्यारो- । अनर्थ घट
मुक्तिदूत :: 219