Book Title: Muktidoot
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 208
________________ अभी-अभी जो सुना था और सुनकर भी जिसकी अवज्ञा की थी, वह झूठा नहीं था।-रानी के हाथ से मंगल का थाल गिर पड़ा। कलश दुलक गया, अक्षय दीवर बुझ गयी ।...पवनंजय आगे न बढ़ सके... | अबाकू और निस्तब्ध वे माँ के चेहरे की ओर ताकते रह गये... | रानी के पीछे खड़ी मंगल-गीत गा रही अन्तःपुर की रमणियाँ हाय-हाय कर उठौं । अपराधिनी की तरह हुलकी-सी खड़ी महादेवी थर-थर काँप रही हैं-आँखें उनकी धरती में गड़ी हैं। पुत्र की ओर दृष्टि उठाकर देखने का साहस उन्हें नहीं है। गाने मावद पहजय के मुंह सेनामाला प्रश्न फूट पड़ा "माँ...लक्ष्मी कहाँ है? उसके महल का द्वार रुष्ट्र है और तुम्हारे पीछे भी वह नहीं खड़ी है!...नहीं लगाएगी वह मुझे जयतिलक...? नहीं पहनाएगी वह मुझे जयमाला...? बोलो माँ...जल्दी बोलो ।...शायद तुमने सोचा होगा कि अपशकुन हो जाएगा (ईषत् हैसकर)...इसी से, जान पड़ता है, उसे कहीं छुपा दिया है।...पर माँ तुम नहीं जानती...उसी के लिए लाया हूँ यह जयश्री-! उसके चरणों में इसे चढ़ाकर अपना जन्मों का ऋण मुझे चुकाना है। पहले उसे जल्दी बुलाओ माँ-मैं विनोद नहीं कर रहा हूँ।...मैं समझ रहा हूँ तुम घबरा रही हो-पर मैं तुम्हें अभी सब बातें बता दूंगा। लज्जावश शायद वह तुमसे न कह सकी हो। पर पहले लक्ष्मी को बुलाओ माँ...देर न करो...महत टल रहा है..." रानी बेसुध-सी हो पुत्र की ओर बढ़ी और उसे अपनी दोनों बाँहों से छाती में भरकर रो उठी-| पवनंजय माँ के आलिंगन में मूछित हो गये। चारों ओर हाहाकार व्याप्त हो गया। उत्सव का आह्माद क्रन्दन में परिणत हो गया। एक स्तब्ध विषाद की नीरवता चारों ओर फैल गयी। 32 महादेवी के कक्ष की एक शय्या पर पवनंजय माँ की गोद में लेटे हैं- | सिरहाने की ओर राजा, मसनद के सहारे सिर लटकाये निश्चेष्ट-से बैठे हैं। पायताने के पास प्रहस्त एक चौकी पर मानो जड़ीभूत हो गये हैं। उनका एक हाथ पवनंजय की पगतली पर सहज ही पड़ा है। उनकी आँख की कोरों में पानी की लकीरें थमी हैं। शय्या के उस ओर खड़ी दो प्रतिहारियों मयूर-पंख के दो विपुल पंखों से बिजन कर रही हैं। सारे उपचार समाप्त हो गये हैं, पर पवनंजय को अभी चेत नहीं आया। हृदय पर पहाड़ रखकर प्रहस्त ने उस अपराधिन पुण्यरात्रि का वृत्त सुना दिया। सुनकर राजा क्षण भर को स्तम्भित रह गये-फिर दोनों हाथों से कपाल पीट लिया और मकट-कण्डल उतारकर धरती पर दे मारे । भूषण-अलंकार छिन्न-विच्छिन्न कर फेंक दिये । पृथ्वीपति-पृथ्वी पर गिरकर उसकी गोद में समा जाने को छटपटाने 218: पित्तदूत

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