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तो पवनंजय मौन रहते हैं, या फिर कोई कौतुक करके, अथवा अन्योक्ति-दृष्टान्न देकर बात बदल देते हैं। माँ की बात को तो ये विनोद में ही उड़ाकर हँस भी देते हैं। माँ इस हठीले बेटे को खुलकर हँसते देखकर ही मानो परितोष कर लेती है, और आगे का आग्रह-अनुरोध उसका मानो निर्वाक् हो जाता है।
तब आज प्रहस्त को महाराज और महादेवी की आज्ञा हुई है कि वह इन आये हए राजकुमारियों के चित्रों को लेकर पवनंजय के पास जाए। उसे दिखाकर उसके हृदय का भेद पाए। और अपना सारा प्रयत्न लगाकर वह पवनंजय की अनुमत्ति, दुसरे विवाह के लिए ले आए। वह राज-कर्तव्य लेकर जा रहा है, पर वह अच्छी तरह जानता है कि वह हली कराने जा रहा है। पवनंजय की कविता को उसने कौन-सा दर्शन दिया था, वह रहस्य कौन जानता है? महाराज और महादेवी को भी उस सबका क्या पता है? उनके निकट तो वह तारुण्य का हठीला अभिमान ही अधिक है, जिसे किसी अनहोने लावण्य की खोज है; और उम्न के बीतते हुए निरर्थक वर्षों में वह आप कहीं ढीला हो जाएगा।
नवम खण्ड पर कोने के उस अठकोने कक्ष में आज पवनंजय काम में व्यस्त थे। वे कई दिनों से यहाँ अपने ही स्वप्न-कल्पना के अनुरूप ढाई-द्वीप की रचना को सांगोपांग कर रहे हैं। सूचना पाकर पयनंजय ने प्रहस्त को ऊपर ही बुला लिया। प्रहस्त इस कमरे में पहली ही बार आया है। देखा तो, देखकर दंग रह गया। विशाल धातु स्तवकों में कई प्रकार की गूंधी हुई थिकनी मिट्टियाँ सजी हैं। चित्र-विचित्र पाषाणों, मणियों और उपलों के ढेर चारों ओर फैले हैं। देश-देश की रंग-बिरंगी धूलि
और बालका विल्लौर के करण्ठकों में चमक रही है। शंख और सीपों के बड़े-बड़े चषकों में अनेक रंगों की राशियों फैली हैं। जो रचना हुई है उसमें अद्भुत रंग-छटा और यारीक रेखाओं में, बड़े ही कौशल और कारुकार्य के साथ, प्रकृति के विस्तार को, अवकाश और सौन्दर्य को बाँधने का प्रयत्न अविराम चल रहा है। पृथ्वी, पर्वत, समुद्र और आकाशों की सारी दुलध्यता कुमार की तुली और उँगलियों के बीच खेल रही है।
मानो कोई बड़ा रहस्य एकबारगी ही खोल दिया हो, ऐसे गौरघ की मुसकराहट से पवनंजय ने प्रहस्त का स्वागत किया। प्रहस्त के मन में एकाएक प्रश्न उठा-यह महाशिल्प-व्यापार, यह कलोद्भावना किसलिए? अर्ह-भोग में बन्दिनी होकर यह कला आखिर कहाँ ले जाएगी? ये रंग और रेखाएँ, मानो फैलकर जड़ित हो गयी हैं-उनमें जीवन के प्रवाह की सजीवता नहीं है। लोक का क्षेत्र-विस्तार इसमें बँध भी आए, पर क्या जीवन की इयत्ता का मान इसमें से उपलब्ध हो सकेगा? पर समय-समय पर आकर क्या उसने, इसी रचना के बृहद् आयोजन में मदद नहीं की है?
प्रहस्त बोला कुछ नहीं, सोचा कि रास्ता कौतुक का ही ठीक है। उसने राजकन्याओं के वे चित्र-पट खोल-खोलकर, कमरे में आस-पास आधारों पर टैंगे
मुक्तिदूत :: 93