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अपने हृदय के टुकड़े कर, अपने पैरों के नीचे तुमने उसे कुचल डालना घाहा-उसे । मिटा देना चाहा, पर क्या वह मिट सका...?"
अनुताप से विगलित स्वर में पवनंजय बोले
"नहीं मिटा सका प्रहस्त, स्वयं मौत के हाथों अपने को सौंपकर भी नहीं मिटा सका। अपने उसी अज्ञान का दण्ड पाने के लिए मरकर भी मैं प्रेत की तरह जीवित रहा।...पर प्रहस्त, अब प्राण मुक्ति के लिए छटपटा रहे हैं! साफ़ देख रहा हूँ भैया, रक्षा और कहीं नहीं है। उसी आँचल के तले नव जन्म पा सकेंगा। यह घड़ी अनियार्य है; मेरे जन्म और मरण का निर्णायक है यह क्षण, प्रहस्त! मुझे मृत्यु से जीवन के लोक में ले चलो। जल्दी करो प्रहस्त, नहीं तो देर हो जाएगी।...युद्ध मुझे नहीं चाहिए प्रहस्त, यह धोखा है, वह आत्म-छलना है। मैं अपने ही आपसे औंखमिचौली खेल रहा था। युद्ध मुहासे न लड़ा जाएगा। देखो न प्रहस्त, मेरी भुजाएँ काँप रही हैं, पैर लड़खड़ा रहे हैं, छाती उफना रही है-जीवन चाहिए प्रहस्त, मुझे जिलाओ। 'पाप, की ये ज्वालाएँ मुझे भस्म किये दे रही हैं. मुझे ले चलो उस जलधारा के नीचे. उम मत के लोक में...
"पर पवन, युद्ध को पीठ देकर क्षत्रिय को लौटना नहीं है। कर्तव्य से पराङ्मुख होकर उसे जीवन की गोद में भी त्राण नहीं मिलेगा। कर्तव्य यदि अकर्तव्य भी हैं तो उसे सुलटना होगा, पर लौटना सम्भव नहीं है-!"
___पर इस क्षण ये प्राण मेरे हाथ में नहीं हैं, प्रहस्त! तुमसे जीवन-दान माँग रहा हूँ, ओ रे मेरे चिर दिन के आत्मीय, जीवन की मेरी अँधेरी रातों के निस्पृह दीपस्तम्भ! तुम भी, युगों के बाद, विछुड़कर आज मिले हो। पर अपराध की यह ज्वाला लेकर गति कहाँ है...?" । __तो एक ही रास्ता है, पवन, अभी-अभी आकाश से चलकर चुपचाप रत्नकूट प्रासाद की छत पर जा उतरना होगा। गुप्त रूप से वहाँ रात बिताकर दिन उगने के पहले ही यहाँ लौट आना है। और फिर सवेरे ही सैन्य के साथ युद्ध पर चल देना होगा।"
पवनंजय ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। xxx
थोड़ी ही देर में, दोनों मित्र विमान पर चढ़े, वाँदनी से फेनाविल दिशाओं के आँचल में खोये जा रहे थे।
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तारों की अनन्त आँखें खोलकर आकाश टकटकी लगाये है। ग्रह-नक्षत्रों को गतियों, इस क्षण की धुरी पर अटक गयी हैं... !! :: मुक्तिदूत