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में व्याघात न डालें। मिथ्या के जिस विरुप विधान ने मनुष्य के जीवन को आत्मपीड़न के दुश्चक्र में डाल रखा है, हो सके तो उससे अलग खड़ी होकर उसे प्रतिषेध दें। और यो किसी दिन उस दुश्चक्र को उलट दें।"
थोड़ी देर चुप रहकर अंजना फिर बोली:
"पर कर्म-विधान की इस कुरूपता में भी क्या आत्म का धर्म सर्वथा लोप हो गया है। नहीं-नयमी और के मंच रहकर वह ज्योति प्रकट होती है। इसी से तो मुक्ति-मार्ग की रख अक्षुण्ण चली आ रही है। मनुष्य के भीतर की उज्ञ्चलता जहाँ झोंक रही हैं उसी पर श्रद्धा को टिका देना है। वही हमारा निजत्व है। जो कुरूप है वह तो मिथ्या हैं ही। उसे सत्य मानकर उसके प्रति रुष्ट और आग्रही होना, तो अपने को उसी दुश्चक्र में डाले रखना है।"
"पर यों परमुखापेक्षी होकर कब तक चला जाएगा, अंजन?"
"पर मैं कहूँ, निरपेक्ष क्या है, जीजी: अपेक्षा तो अस्तित्व के साथ ही लगी है। निरपेक्ष होकर जीने का अभिमान ही तो मिथ्या-दर्शन है। सम्यक्त्व से वहीं हम च्युत हो जाते हैं। असल में देखना यह है कि वह अपेक्षा स्वार्थ से सीमित न हो। वैसी अपेक्षा तो प्रेम के बजाय लोभ को ही अधिक बढ़ाएगी। वह देनेवाले में अभिमान जगाएगो और लेनेवाले में हीनता उत्पन्न करेगी। मनुष्य-मनुष्य के बीच प्रेप का जी अविनाभावी और चिरन्तन सम्बन्ध है, यह समूल कभी भी नष्ट नहीं हो सकता। आत्मा की मौलिक एकता में हमारी निष्ठा यदि दृढ़ है, तो उस प्रेम का परिचय हम सतत पाते जाएँगे-जीबन के पथ में। उसी का फल यह अयाचित दान है, जीजी। पराधीनता का संकीर्ण भाव मन में जरा नहीं लाना है। प्रेम का प्रसाद समझकर ही इस भिक्षा को ग्रहण कर लेना है। आधिपत्य की कांक्षा और अभिमान मन में न रखकर यदि आकिंचन्य का व्रत ग्रहण किया हैं, तो फिर भिक्षा ग्रहण करने में लज्जा का कारण नहीं है, जीजी। भिक्षा तो उसी शाश्वत प्रेम-परिचय का एक चिद मात्र है। परस्पर एक-दूसरे को स्वीकार किये बिना हम यल नहीं सकते हैं।"
इतने ही में कृषक की दोनों कन्याएँ काँसे के बड़े-बड़े कटोरों में रस भरकर ले आयीं। अतिथियों के सामने कटोरे धरकर, दोनों ने पल्ला बिछाकर भूमि पर माथा टेक प्रणाम किया। अंजना ने उनके माथे पर हाथ रखकर आशीर्वचन कहे। लज्जा मिश्रित कौतूहल से मसकराती हुई दोनों बालाएँ, अपने इन असाधारण अतिथियों को बड़े ही विस्मय की आँखों से देख रही थीं। अंजना ने उनके नाम पूछे, आसपास की ग्राम-वसतिकाओं का और इस देश का परिचय पूछा । वालाओं ने अस्फुट स्वर में लजा-लजाकर उसके उत्तर दिये। इतने ही में उधर के काम से निबटकर वृद्ध कृषक आ पहुँचा। बातचीत में वृद्ध ने बताया, कि ये दोनों कन्याएँ ही मात्र उसकी सन्तति हैं। पुत्र कोई नहीं है। पत्नी इन्हों दो बच्चियों को अबोध में शैशव में छोड़कर परलोक सिधार गयी थीं। तब से उसी ने पाल-पोसकर बड़े कष्ट से इन्हें बड़ा किया
152 :: मुक्तिदूत