Book Title: Muktidoot
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 198
________________ हाघ-भर उठा दिया, और वह हाथ तब तक वैसा ही अचल दीखता रहा-जब तक यान द्वीपधासियों की दृष्टि से ओझल न हो गया। एक लम्बा रास्ता पार कर पवनंजय और प्रहस्त अन्तरीप में आ उत्तरे। पहुँचते ही सबसे पहले प्रतीक्षातुर और व्याकुल सेन्य को सान्त्वना दी। उनकी कुशल जानो और उनकी अनुपस्थिति में सैन्य ने आसपास के सारे वैर-विरोधों के बीच जिस तरह अनुशासन को अभंग रखा है, उसके लिए गद्गद कपठ ले उनका अभिनन्दन किया। इसके बाद तुरत कुमार झपटते हुए आयुधशाला में गये और आह्वान का शंख उठाकर उसी वेग से अन्तरीप के समुद्र-छोर पर जा पहुंचे। तरंगों से निचुम्बित वेला में, पृथ्वी और समुद्र की सन्धि पर खड़े हो पवनंजय ने चारों दिशाओं में तीन-तीग बार आह्वानन का शंख-सन्धान कर अर्धचक्री रावण और उनके सम्पूर्ण नरेन्द्र मण्डल को . रण का न्योता दिया। चक्री का सीमन्धर महापोत जब ठीक लंकापुरी के समुद्र-तोरण पर आ पहुँचा था कि उसी क्षण, अन्तरीप से यह रण का अप्रत्याशित आमन्त्रण सुनाई पड़ा। सुनकर रावण एकबारगी ही मानो यज्राहत-से हो गये। गुमसुम और मतिहारा होकर एक बार उन्होंने अन्तरीप की ओर दृष्टि डाली; आँखों में मानो एक बिजली-सी कौंध गयी-समुद्र, पृथ्वी, आकाश सभी कुछ एकाकार होकर जैसे चक्कर खाते दीख पड़े-। भीतर एकाएक टूट गयो प्रत्यंचा की टंकार-सा प्रश्न उठा-"क्या चक्री का चक्रवर्तित्व भमण्डल से उठ गया-विष्य की कौन-मी शक्ति है जो जन्म-जात विजेता सवण को रण का निमन्त्रण दे सकती है...?" कि ठीक उसी क्षण उन्हें अपनी वरुणद्वीप पर होनेवाली सद्यः पराजय का ध्यान आया, जिससे लौटकर अभी-अभी वे आये हैं। चक्री का घायल अहंकार भीषण क्रोध से फुकार उठा। गरजकर वे महासेनापति से बोले __ "महाबलाधिकृत, पृथ्वी को शत्रुहीना किये बिना मैं लंका में पैर नहीं रखूगा। सैन्य को सीधे अन्तरीप की ओर प्रवाण करने की आज्ञा दी जाए। महामन्त्री को सूचित करो कि वे तुरत सारे सुरक्षित भू-सैन्य और जल-सैन्य को अन्तरीप में भेजने का प्रबन्ध करें। रास्ते-भर रावण का चित्त अनेक दुःसह शंकाओं से पीड़ित था। क्या यह भी सम्भव है कि द्वीप पर उसकी पराजय का दृश्य देखकर, अन्तरीप स्थित उसी के माण्डलीक राज-चन ने अवसर का लाभ उठाना चाहा है। और सम्भवतः इसीलिए, उसकी निबनता के क्षण में, उसे रण के लिए बाध्य कर उसके स्वामित्व से मुक्त हो जाने की बात उन्होंने सोची हो।-टोनों हाथों से छाती पसोसकर चक्री इन चिन्ताओं और शंकाओं को दफना देना चाहते हैं, और मस्तिष्क में कषाय का एक अदम्य वात्याचक्र चल रहा है। 2008 :: मुक्तिदूत

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