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की चमक से वातावरण में एक बिजली सी कौंध उठी। लक्ष लक्ष तनी हुई प्रत्यंचाओं पर कसमसाकर तीर खिंच रहे थे ।
...कि ठीक उसी क्षण उत्त कौतुकी युवा ने, एक अनोखे भंग से मुसकराकर, रावण के चक्र के सम्मुख दोनों हाथों से अपना शस्त्र डाल दिया ? फिर ईषत् मुड़कर एक मधुर भ्रूभंग के साथ अपने सैन्य को इंगित किया । निमिष मात्र में -सन-झनाझन करते हुए हजारों शस्त्र धरती पर ढेर हो गये। कुला पर से कवच और माथे पर से शिरस्त्राण उतारकर फेंक दिये। फिर एक प्रबल झन-झनाझन के बीच उनकी सेनाओं ने उनका अनुसरण किया।
...पुनः एक बार कुमार ने पूर्ण श्वास से बुद्ध-आह्वान का शंख पूरकर दिशाएँ हिला दीं...
तदनन्तर रावण के तने हुए दिव्यास्त्र के सम्मुख अपना खुला वश्च प्रस्तुत कर, विनम्र वंदन, मुसकराते हुए पवनंजय ने एक अभय शिशु की तरह आकाश में अपनी णाएँ पसार दीं। अनुगामी सैन्य ने भी ठीक वैसा ही किया।
सहस्रों मानवों के अरक्षित खुले हुए वक्षों के सम्मुख लाखों तने हुए तीर कीलित रह गये। चारों ओर अभेद्य निस्तब्धता छा गयी - त्रिखण्डाधिपति की आँख कोरों में एक अतीन्द्रिय आनन्द-वेदना के आँसू उभर आये दिव्यास्त्र अग्नि सता हुआ उनके हाथ से खिसक पड़ा। चक्र डगमगाकर विप्लवी घोष करता हुआ, की के रथ पर आक्रमण करने लगा। सप्ताश्व रथ के देवी घोड़े भयंकर शब्द करते उल्टे पैर लौट पड़े और रथ मानो धरती में धसकने लगा। तीन खण्ड के नाथ मस्तक पर के छत्र छिन्न-भिन्न होकर भूमि पर आ गिरे और धूलि में लोटने
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रावण तुरत रथ से भूमि पर उतर आये। पवनंजय के रथ के निकट जा दोनों होय फैलाकर उनसे नीचे आने का मूक अनुरोध किया। हाथ जोड़कर कुमार सहज लय से अवनत हो गये और हँसते हुए नीचे उतर आये। चक्री ने अपनी अतुल शालिनी भुजाओं में उन्हें भर-भर लिया, और बार-बार गले लगाकर उस चित- अलका लिलार को बिह्वल होकर चूमने लगे। अशेष आनन्द के मौज-मौन सू ही दोनों की आँखों में उमड़ रहे थे। और देखते-देखते चारों ओर प्रेम का एक रावार-सा उमड़ पड़ा। आत्म-सन्ताप के आँसुओं में विगलित लक्ष लक्ष मानव के एक-दूसरे को भुजाओं में भर-भरकर गले लगा रहे थे। मानो जन्म-जन्म का 'विस्मरण कर पहली ही बार एक-दूसरे को अपने आत्मीय के रूप में पहचान हैं....!
पाँच दिन तक अन्तरीप में मर्त्य मानवों ने प्रेम का ऐसा अपूर्व उत्सव मनाया, श्रमरपुरी के देवता भी अपने विमानों पर घढ़कर उसे देखने निकले और आकाश मिन्दार पुष्पों की मालाएँ बरसती दीख पड़ीं।
मुक्तिदूत ||
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