Book Title: Muktidoot
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 199
________________ पर चक्री का भहापोत ज्यों-ज्यों अन्तरीप के निकट पहुँचने लगा, तो तटवर्ती शिविरों से तुमुल हर्ष का कोलाहल और जयघोष सुनाई पड़ने लगा। रावण के चित्त का क्षोभ, देखते-देखते आहाद में बदल गया । ज्यों ही चक्री का महापोत अन्तरीप के तारण पर लगा कि लक्ष लक्ष कण्ठों की जयकारों से आकाश हिल उठा । अतुल समारोह के बीच सहस्रों छत्रधारी महामण्डलेश्वर के समक्ष नतमस्तक हुए। स्वागत के उपलक्ष्य में बज रहे बाजों की विपुल सुरावलियों पर चढ़ रावण फिर एक बार अपने चरम अहंकार के झूले पर पेंग भरने लगे । यथास्थान पहुँचने पर रावण को पता लगा कि इस युद्ध का आह्नान देनेवाला दूसरा कोई नहीं, यही आदित्यपुर का युवराज पवनंजय है, जो आज से तीन लेने पहले एक दिन अचानक शान्ति का शंखनाद कर उसके युद्ध को अटका दिया था। रावण सुनकर भौचक्के से रह गये। उस रहस्यमय युवा का स्मरण होते ही, क्रोध आने के पहले, बरबस रावण को हँसी आ गयी। अनायास उनके मुँह से फूट पड़ा - "अंह - अद्भुत हैं उस उद्धत छोकरे की लीलाएँ, मेरे निजमहल के बन्दीगृह से वह भाग छूटा और अब उसकी यह स्पधां है कि त्रिखण्डाधिपति रावण को उसने रण का निमन्त्रण दिया है। हूँ-नादान बुक्क जान पड़ता है उसे जोवन से अरुचि हो गयी है और रावण के हाथों मौत पाने की वह मचल उठा हैं... ।" नहीं, कहते-कहते रावण फिर एक गम्भीर चिन्ता में डूब गये। विचित्र शंकाओं से उनका मन क्षुब्ध हो उठा। जिस दिन उस कौतुको युवा ने बुद्ध अटकाया था और उन्होंने उसे बन्दी बनाकर लंका भेजा था, ठीक उसके दूसरे ही दिन सबेरे वह अकाण्ड दुर्घटना घटी - निकट आयी विजय हाथ से निकल गयी। उन्हें यह भी याद आया कि महासेनापति को जब वे पवनंजय को बन्दी बनाने की आज्ञा दे रहे थे उस समय उस युवा के सामने ही द्रोप के पिछले द्वार में संध लगने की बात उनके मुँह से निकली थी लेकिन फिर वह सर्वनाशी तूफ़ान ? उसके बाद वह पोतों का स्तम्भन उस छोकरे के बस की बात नहीं थी वह वह किसी मानव का कर्तृत्व नहीं था - देवों और दानवों से भी अजय थी वह शक्ति... उस घटना की स्मृति मात्र से रावण का वह महाकाय शरीर थर-थर काँपने लगा। मस्तिष्क इतने वेग से घूमने लगा कि यदि इस विचार चक्र को न थामेंगे तो वे पागल हो जाएँगे। बहुत दृढतापूर्वक उन्होंने मन को उस ओर से मोड़कर बाहर की युद्ध-योजनाओं में उलझा देना चाहा पर भीतर रह-रहकर उनके चित्त में एक बात बड़े जोर से उठ रही थी- "क्यों न उस स्वामीद्रोही की फिर बन्दी बनवाकर लंकापुरी के तहखानों में आजन्म कारावास दे दिया जाए यदि उस उपद्रवों को मुक्त रखा गया, तो क्या आश्चर्य, वह किसी दिन समृचे नरेन्द्रचक्र में राजद्रोह का विष फैला दे । पर उसने मुझे संग्राम की खुली चुनोती दी है। उसने मेरे बाहुबल और मेरी सारी शक्तियों को ललकारा है। युद्ध से मुँह मोड़कर यदि उसे बलात् बन्दी बनाया जाएगा, तो दिग्विजेता रावण की विजय - गरिमा खण्डित मुक्तिकूल खा -

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