Book Title: Muktidoot
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 197
________________ ने सपने में आकर रावण ते कहा कि- "इस शक्ति का प्रतिकार हमारे बस का नहीं ...चार महीनों बाद पवनंजय एक दिन सवेरे अनायास वेदी के वातायन पर आ खड़े हुए। चारों ओर निगडित और पराजित बेड़ों में सहस्रों मानवों को अपनी कृपा के अधीन प्राण की याचना करते देखा- । पवनंजय का चित्त करुणा और वात्सल्य से आई हो गया। मन-ही-मन बोले ___ "घात का संकल्प मेरा नहीं था, देव! नाश मेरा लक्ष्य नहीं, निखिल के कल्याण और रक्षा के लिए है मेरा यज्ञ। प्राणियों को इस तरह त्रास और मरण देकर क्या शत्रुत्व का उच्छेद हो सकेगा? द्वीप की रक्षा इसी राह होनी थी, वह हो गयी। बलात्कारी को अपने बल की विफलता का अनुभव हो गया। पर क्या वहीं पर्याप्त है। रावण का अभिमान इससे अवश्य खण्डित हुआ है, पर क्या इस पराजय से उसका हृदय घायल नहीं हुआ है? क्या वैर और विरोध का यह आघात भीतर दबकर, फिर किसी दिन एक भयानक मारक विष का विस्फोट नहीं करेगा। हार और जीत का राग जब तक यना हुआ है, तब तक वैर और विद्वेप का शोध नहीं हो सकेगा।-मुझे रावण और इन इतने राजन्यों पर शक्ति का शासन स्थापित नहीं करना है। उन पर स्वामित्व करने की इच्छा मेरी नहीं है, हो सके तो उनके हृदयों को जगाकर उनके प्रेम का दास होना चाहता हूँ : अमीनसा अपाय से भाव को तो मैं निर्मूल करने आया हूँ। त्रिखण्डाधिपति रावण के निकट उसके विजेता के रूप में अपने को उपस्थित करने की इच्छा नहीं है; मैं तो उसकी मनुष्यता के द्वार पर उसके हृदय का याचक बनकर खड़ा हूँ। वह भिक्षा जब तक नहीं मिल जाती, तब तक टलने को नहीं हूँ।-हे सर्वशक्तिमान ! जिस सत्य ने इस द्वीप की रक्षा की है, वहीं उन वेड़ों के त्रस्त मानवों को भी जीधन-दान दे, यही पेरी इच्छा है...!" निमिष मात्र में बेड़ों के लंगर अपने आप उठ गये। बिना किसी प्रयत्न के पोत गतिमान हो गये। उनके आरोही मनुष्यों के आश्चर्य की सीमा न थी। प्राण की एक नयी धारा से ये जीवन्त हो उठे। चारों ओर मृत्यु की खामोशी टूटी और हर्ष का जय-जयकार सुनाई पड़ने लगा। ...अन्तर्देवता का शासन अमंग चल रहा है। एक निष्काम कर्म-योगी की भाँति अविकल्प भाव से पवनंजय उसके वाहक हैं। मन, वचन और कर्म तीनों इस क्षण एकरूप होकर प्रवहमान हैं।-चूपचाप पवनंजय ने एक गुप्तचर को भेजकर प्रहस्त को बुलवा लिया और दूसरे गुप्तचर को भेजकर यान मैंगवा लिया। ...यान जब उड़कर कुछ ही ऊपर गया कि द्वीप में भारी हलचल मच गयी। व्यग्न जिज्ञासा की आँखें उठाकर, द्वीपबासी बार-बार हाथ के संकेतों से पवनंजय को लौट आने का आह्वान देने लगे। उत्तर में पवनंजय ने समाधान का एक स्थिर मुक्निदूत :: 207

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