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मेरे पास नहीं हैं, तन्त्र का बल भी नहीं है, सारी विद्याएं भूल गयी हैं, शस्त्र भी मेरे पास नहीं है, अन्य भी नहीं है, पक्तियाँ सरगना शरद का अभिमान टूट गया है, केवल सत्य है मुझ निर्बल का बल । - यदि मेरा सत्य उतना ही सत्य है, जितना तू सत्य है और यह समुद्र सत्य हे तो इस महासमुद्र की लहरें मेरे उस सत्य की रक्षा करें, और नहीं तो इस प्रकाण्ड जलराशि के गर्भ में ये प्राप्ण विसर्जित हो जाएँ...!"
कहकर पवनंजय ने निखिल सत्ता के प्रति अपने आपको उत्सर्ग कर दिया...। .... सवेरा होते न होते एक प्रबल वाल्याचक द्वीप के आसपास मँडराने लगा। ... देखते-देखते समुद्र में ऐसा प्रलयंकर तूफान आया जैसा द्वीप के लोगों ने न पहले कभी देखा था और न सुना ही था । अपनी दिग्विजय के समय प्रबल से प्रबल तूफ़ानों के बीच रावण ने समुद्रों पर आरोहण किया है, और उनकी जगती पर अपनी प्रभुता स्थापित की है पर आज का तूफ़ान तो कल्पनातीत है। आत्मा में होकर वह आर-पार हो रहा है, अनुभव से वह अतीत हो गया है । सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड मानो एक जलतत्त्व में निर्वाण पर गया है। सत्तामात्र इस जलप्लावन की तरंग भर रह गयी है...!
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.... विप्लवी और तुंग लहरों ने उठ उठ कर चारों ओर से द्वीप को ढाँक लिया...। आसपास पड़े आक्रमणकारियों के विशाल पेड़े, बिना लंगर उठाये ही, तितर-बितर होकर, समुद्र के दूर-दूर के प्रदेशों में, लहरों की मरजी पर फेंक दिये गये... | मनुष्य के सम्पूर्ण बल और कर्तृत्व का बन्धन तोड़कर, तत्त्व अपनी स्वतन्त्र लीला में लीन हो गया... |
... और सूर्योदय होते न होते तूफ़ान शान्त हो गया। आक्रमणकारियों का एक भी पोत नहीं डूबा। पर बिखरे हुए जहाजी बेड़ों ने पाया कि लंगर उनके उठाये नहीं उठ रहे हैं। अपने स्थान से वे टस से मस नहीं हो पाते। धूप में चमकते हुए चाँदी-से समुद्र की शान्त सतह पर शिशु-सा अभय वरुणद्वीप मुस्करा रहा है...।
... दिन पर दिन बीतते चले । अपने सारे प्रयत्न और सारी शक्तियाँ लगा देने पर भी रावण ने पाया कि पोत नहीं डिग रहे हैं...। तब उसे निश्चय हो गया कि अवश्य ही कोई देव - विक्रिया है, केवल अपने पुरुषार्थ और विधाओं से यह साध्य नहीं। विवश हो चक्री ने अपने देवाधिष्ठित रत्नों का आश्रय लिया। एक-एक कर अपने सारे रत्नों और विद्याओं की संयुक्त शक्ति रावण ने लगा दी नाश के जो अचूक अस्त्र अन्तिम आक्रमण के लिए बचाकर रखे गये थे, वे भी सब फेंककर चुका लिये गये। पर न तो द्वीप ही नष्ट होता है न रावण अपनी जगह से हिल पाते हैं। ध्वज और दीप के सांकेतिक सन्देशे भेजकर, अन्तरीप कं स्कन्धावार से राजन्यों को नये बेड़े लेकर बुलाया गया; पर भयभीत होकर उन्होंने आने से इनकार कर दिया। इसी प्रकार लंकापुरी से रसद और सहायक बेड़ों की माँग की गयी, पर वहाँ से कोई उत्तर नहीं आया। दिन, सप्ताह, महीने बीत गये । समुद्र के देवताओं
2016 : मुक्तिदृत