Book Title: Muktidoot
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 203
________________ विजयाभिमान को विदीर्ण कर दिया। मेरे हाथ के दिव्यास्त्र से निकलती हुई अग्नि मुझे हो भस्म करने को उद्यत हो पड़ी। मेरे ही रग पे मेरे ऊपर कर मेरे सिंहासन को रौंद देना चाहा। और इस महासमुद्र की चंचल लहरों ने, जिन पर शासन करने का मुझे एक दिन घमण्ड था, बज्र की श्रृंखलाएँ बनकर मुझे बन्दी बना लिया। उनके अधीन प्राण का भिखारी बनकर मैं थर्रा उठा । - तब कैसे कहूँ कि मैं इनका स्वामी हूँ, और अपनी इन उपलब्धियों के बल पर मैं लोक की जीवित सत्ता पर शासन कर सकूँगा...? जड़ भौतिक विभूतियों को अपने अधीन पाकर, निखिल चराचर पर अपना साम्राज्य स्थापित करने का मुझे उन्माद हो गया था। तब चेतन की उस केन्द्रीय महाप्राण सत्ता ने अपने ऊपर छा गये जड़त्व के स्तूप को उखाड़ फेंकने के लिए विद्रोह किया है। उसी चेतन का मुक्ति दूत बनकर आया हैं, यह आदित्यपुर का विद्रोही राजकुमार पवनंजय ! टूटते हुए वरुणद्वीप की वेदी में खड़े होकर उसने अपने आत्म बल से तत्त्वों की सृष्टि पर शासन स्थापित किया । देवताओं और दैत्यों ने उस शक्ति से हार मानी । परोक्ष आत्म-सत्ता के उस आविर्भाव ने मेरे अभिमान को तोड़ा अवश्य, पर भीतर हृदय का राग और ममत्व पराजय की एक दाहक पीड़ा जगा रहा था। तब इस रणभूमि में प्रत्यक्ष सम्मुख खड़े होकर पवनंजय ने मेरी जड़ बल-सत्ता को चुनौती दी। मेरे सारे तने हुए प्रताप की धार पर उत्तने शस्त्र - समर्पण कर दिया और तब हृदय पर अखण्ड प्रेम की ज्योति जलाकर उसने मेरे प्रहार को आमन्त्रित किया। अगले ही क्षण सहस्रों जलती हुई प्राण-शिखाएँ एक साथ निछावर हो उठीं। देखती आँखों आत्मा की उस अमर ज्योति में, मेरे प्रताप, वैभव और विभूति का वज्र गलित हो गया... | "... इस रणक्षेत्र में इस अद्भुत युवा ने धर्म का शासन उतारा है। मुझे प्रतीत हो रहा है कि आज से आतंक और शक्ति का जड़ शासन भंग हो गया। धर्म का स्वयंभू शासन ही लोक के हृदय पर राज्य कर सकेगा। चक्री का यह सिंहासन आज से धर्मराज का सिंहासन हो । लोक के कल्याण के लिए प्रस्तुत हों वे सारी विभूतियाँ। चक्री मात्र इनका रक्षक होकर, नम्रतापूर्वक इस धर्म - शासन का सूत्रसंचालन करेगा। वह होगा लोक का एक अकिंचन सेवक दासानुदास ! "... पृथ्वीपतियो ! धर्मराज के इस सिंहासन के नाम पर तुम सबों से मेरा एक ही अनुरोध है : लोक की जड़ सत्ता के बलात्कारी अधिपति बनकर नहीं, जीवन्त लोक के विनम्र सेवक बनकर उसके हृदय पर अपना आधिपत्य स्थापित करो और यों अपने राजस्व और क्षात्रत्व को कृतार्थ करो। ससागरा पृथ्वी के तीन खण्डों को जीतकर भी, इस छोटे से वरुणद्वीप पर आकर मेरा समस्त बलवीर्य और शक्तियाँ पराजित हो गयीं। इस पर युवराज पवनंजय ने हमारे हृदयों पर शासन स्थापित कर, तत्त्व की चेतन सत्ता को जीता है। इसी से कहता हूँ, आज से वही होगा हमारा मुक्तिदूत : 213 •

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