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• पड़ी रह जाती। शाल ओर सल्नको की सुगन्ध-निबिड़ छाया में प्रमत्त होकर वहाँ
जंगली हाथी और हथिनियों के झुण्ड दिनभर ऊचम मचाते रहते। कभी-कभी वे तालाव में आ पड़ते और तुमल कोलाहल करत डा. सूड़ों में पानी भर-भरकर चारों
ओर की वनभूमि में फच्चारे छोड़ते। जब वे पानो की चौछारें और उनकी क्रीड़ा का जल छत्तता-तो उसमें नहाकर अंजना अपने को कृतार्थ पाती। रूप से किलकारियाँ करती हुई वह भी उनके क्रीड़ा-कलरव की सहचरी हो जाती। हाथियों के गालों से निरन्तर झरते मद-जल और शैवाल-पल्लवों से आसपास की वनभूमि श्याम हो गयी हैं । हस्ति-शावकों के साथ वहाँ तालियाँ बजा-बजाकर वह आँखमिचौली खेलती। जब वे थल-थल दौड़ते हुए हस्ति-शावक अंजना को पा जाते तो अपनी सम्मिलित सूड़ों से पकड़कर उसे अपनी पीठ पर बैठाने की होड़ा-होड़ी करते।
पहाड़ के ढालों पर भोज, सप्त-पत्र, सुपारी और कोष-फल की वन-लेखाएँ, अनेक सघन बीथियों बनाती हुई ऊपर तक चली गयी हैं। कहीं सारा पहाड़ चन्दन के वन से पटा है, तो कहीं लवंग और किंशुक से पर्वत-घाटियाँ आच्छादित हैं। दिन-रात सुगन्ध से पागल समीरण पर्वत-दालों में अन्ध-सा बाता रहता है। प्रमरों के अलस गुंजार भोर रह-रहतार नेणले
ग र नाल में वन के प्राण का मर्म-संगीत निरन्तर प्रवाहित है।
...अरोक अंजना ढालों की उन बीथियों में चलती जाती। और चलते-चलते जहाँ कहीं भी उसे किसी अगम्यता का बोध होता, कोई रहस्यमय या संकुल प्रदेश दीखता, उस ओर वह खिंचती चली जाती। निविड़ वनस्पतियों से घनीभूत याटियों में जहाँ पैर रखने को भी राह नहीं सूझती है, वह झाड़-झंखाड़ों को लॉयती-फाँदती चली ही जाती। चारों ओर दिन के प्रखर उजाले के बीच वह अँधेरी गुहा दिखाई पड़ रही है। मानो असंख्य रात्रियों का पुंजीभूत अन्धकार वहीं आकर छुप गया है। गुफ़ा की अतल गम्भीरता में से कुछ घहराता, गरजता सुनाई पड़ता है 1 देखते-देखते वह ऊँचा और मन्द गर्जन, दुस्सह और भयानक हो उठता। बनभूमि थर्रा उठती।
और अंजना को एक सोनहरी झलक झंखाड़ों में से ओझल होती दीख पड़ती। तो कहीं झाड़ियों में डूबे उसके परों में, कोई विपुल लोप का स्पर्श उसकी पिण्डलियों को सहलाता हुआ सर्र से निकल जाता: फिर सब शान्त हो जाता। वह फुदकती, कूदती अपनी राह लौट आती। शरीर में रह-रहकर एक सिहरन-सी फट उठती है। वह पुंजीभूत अन्धकार, वह सोनहरी झलक, वह लोम-स्पर्श पैरों को पीछे खींचता है--कि बह जाने तो,-कौन रहता है वहाँ...? उससे साक्षातु करने की उसकी बड़ी इच्छा है। पर अब देर हो गयी है, शाम हो आयी है, जीजी बाट देखती होगी। लेकिन जरा आगे चलकर रास्ते में उसे मरे हुए हाथियों की लाशें मिलती हैं। उसे अनुमान होता है कि किसके आवास से लौटकर वह आयी है- ईषत् मुसकराकर वह अपनी ही खिल्ली उड़ा देती। सिंह के पंजों से विदारित हाथियों के कुम्भ-स्थलों के रक्त
मुक्तिदृत :: 177