Book Title: Muktidoot
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 168
________________ में पड़े अनेक रंगों की आभावाले मोती राह में दिखाई पड़ते हैं। तो कहीं दाल में जलधाराओं के सूखे पथ दीखते हैं। उनमें ऊपर से बह आयी बहुरंगी बालू और उपलों में स्वर्ण की धूलि और रत्नों के कण चमकते दीख पड़ते हैं। उन मोतियों और स्वर्ण - रत्न की धूलि को खेल-खेल में पैरों से उछालती हुई अंजना द्रुत पग से पहाड़ उतर चलती । लौटते हुए राह में यह चन्दन का वन पड़ता है। रात में चाँद की किरणों के स्पर्श से चन्द्रकान्त शिलाएँ पर्वत-शिखर पर पिघलती हैं। वहाँ से जल के निर्झर बहते हैं। उस जल के से दिव्य हो गयी हैं । चन्दन-वन के काले भुजंग उन औषधियों के जालों में घूम-घूमकर निर्विष हो गये हैं। उनकी मणियाँ यहाँ सहज, सुप्राप्य चारों ओर बिखरी मिलती हैं। रलमलाते हुए साँप पैरों के पास से निकल जाते हैं- अंजना रुककर देखने लग जाती है तभी फन उठाकर मणिधर भुजंग वन्दन करता है । वत्सल स्निग्ध नयनों से मुसकराकर वह उसके फन पर हाथ रख देती और आगे बढ़ जाती। ... अंजना अपनी गुफ़ा को लौटती हुई रास्ते में सोचती। सृष्टि में चारों ओर दान और दाक्षिण्य का मुक्त यज्ञ चल रहा है। सभी अपने आपको दान कर यहाँ सार्थक हो रहे हैं। अभिमान यहाँ चूर-चूर होकर भूमिसात् हो जाता है। चारों ओर फैली पड़ी हैं दान की अमूल्य निधियाँ। सर्व-काल वे सुलभ और सुप्राप्य हैं। पर नहीं जागता है उन्हें उठाकर पास रखने का लोभ सब कुछ यहाँ सदा अपना है। सहज ही एक भाव मन में विराजता है : इस भीतर और बाहर के समस्त चराचर के हमी जैसे निर्बाध स्वामी हैं। यह सब हममें हैं, और हम इस सबमें कहाँ नहीं हैं? फिर लोभ कैसा, हिंसा क्यों, संग्रह का भाव क्यों ? ...एक दिन ऐसे ही अपने भ्रमण में अंजना वसन्त को साथ लेकर एक पर्वत घाटी में घूम रही थी। नाग और तिलक वृक्षों से ढाल पटा था। उनकी जड़ों में उगकर वन मल्लिकाओं के वितान चारों ओर छा गये थे। एक जगह भूरे पाषाणों की कुछ सीढ़ियाँ दीखीं। आसपास की ऊँची-नीची चट्टानों में किंशुक की लाल पराग में भीगे चकोरों के जोड़े बैठे थे। चट्टान के एक घटल में एक चतुष्कोण गहराई-सी दीखी। ऊपर जाकर पाया कि उसमें मल्लिका के फूलों का एक स्तूपाकार ढेर समाधि-सा पड़ा है। उसके ऊपर एक मस्तक की आकृति-सी झाँकती दिखाई पड़ी । उत्सुकतावश अंजना ने वह मल्लिका के फूलों का स्तूप हटा दिया। भीतर से एक बड़ी ही मनोज्ञ, विशाल पद्मासन मूर्ति पहाड़ में खुदी हुई निकल आयी । मूर्ति अनेक पानी की धाराओं और ऋतुओं के आघातों से काफ़ी जर्जर हो चुकी थी। पर उस मुख की कोमल, सौम्य भाव-भंगिमा और उन मुद्रित होठों के बीच की बोतराग मुसकान अभी भी अभंग थी। लगता था कि मूर्ति के ये होठ जैसे अभी-अभी बोल उठेंगे। ऐसी जीवन्त और मनोमुग्धकारी छवि है कि आँख हटाये नहीं हट रही है । 178 :: मुक्तिदूत

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