Book Title: Muktidoot
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 171
________________ जाकर अशेष हो गयी- । जल, थल और आकाश में शान्ति का अनन्त आलाप राग फैल चला, समस्त घराघर के प्राण को वह सुख से ऊर्मिल कर गया ।...नहीं है शोक, नहीं है दख, नहीं है घात, नहीं है विरह, नहीं है भय, नहीं है मृत्यु-आनन्द की एक अप्रतिहत धारा में सारा वैषम्य तिरोहित हो गया। अव्याबाध प्रेम के चिर विश्वास से दोनों बहनों के हदय आश्वस्त हो गये। और जाने कब वे गहरी नींद में सो गयीं। रात के चमत्कार पर सवेरे उठकर ये विस्मित थीं। गुफा के ऊपर चारों ओर घूम-फिरकर वे देख आयीं, कहीं कुछ नहीं है। सोचा कि अवश्य ही, घाटी में जो तीर्थंकर प्रभु शाश्वत विराजमान है, उनकी सेवा में कोई देव नियुक्त है और उसी ने उनकी रक्षा की है। मध्य रात्रि का वह वीणा-वादन भी उस देव का ही एक दिव्य सन्देश था! ...बात असल में यह थी कि पर्वत के शिखर-देश में मणिचल नामा एक गन्धर्व का गुप्त आवास था। रनचूल नामा अपनी स्त्री के साथ गन्धर्व वहाँ रहता था। पहले ही दिन जब उस सन्ध्या में मुनि के चरणों में इन दोनों मानवियों ने अपना आत्म-निवेदन किया था, उस समय का सारा दृश्य गन्धर्व-युगल ने ऊपर से देखा था। उसी दिन से छुप-छुपकर वे दोनों, बन्य-पशुओं तथा वन की और दूसरी भयानकताओं से इन मानावयों को बराबर रक्षा करते रहते थे। इसी स हिंस-पशुओं से भरे इस विकट अरण्य में आज तक उन्हें कोई उपद्रव या उपसगं नहीं हुआ था। पर मवी साँझ की बह घड़ी अनिवार्य थी। गन्धर्व-युगल का ध्यान चूक गया। पर जब ट्योग घट गया, तब एकाएक बे सावधान हो गये। उसी क्षण विक्रिया से अष्टापद का रूप धारण कर गन्धर्य आ पहुँचा और उसने उस सिंह को पछाड़ फेंका। गन्धर्व संगीत की सारी सिद्धियों का स्वामी था। इन बालाओं के मन में जो भय गहरा हो गया था, उसे शान्त करने के लिए ही उसने मझरात में वह महाशान्ति का राग बजाया था। उस दिन से और भी सन्नद्ध होकर वह गन्धर्व-युगल उन पानचियों की रक्षा में तत्पर रहता। कुछ ही दिनों बाद-- पर्वत शिखर के वृक्षों में दिन का उजाला झौंक रहा था 1 बन की डालों में चिड़ियाएँ प्रभाती गा रही थीं। गफ़ा के बाहर के शिला-तल पर अभी ही अंजना ने आत्म-ध्यान से आँखें खोली हैं। चारों दिशाओं में अंजुलि खोलकर उसने प्रणाम किया। तदनन्तर कमण्डलू उठाकर वह प्रवाह पर जाने को उद्यत हुई कि उसी क्षण कटि-भाग में और पेट में उसे पीड़ा-ती अनुभव होने लगी। वह ब्याकुलता उसे अनिवार्य जान पड़ी। वह धप-से ज़मीन पर बैठ गयी और पेट थामती हुई असह्य वेदना से छटपटाने लगी। कराहते हए केवल इतना ही उसके मुख से निकला “जाजी..." गुफ़ा में से वसन्त वाहर दौड़ी आयो। अंजना की सारी देह और चेहग एक मुक्तिदूत :: 181

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