Book Title: Muktidoot
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 175
________________ गये के मगरमच्छ!-अंजना अपने आँसू न थाम सकी। उसने मुंह दूसरी ओर फेर लिया और बेयसी हो ही . पक्षी ने गोद लेकर ज- शीतोपचार कर उसे स्वस्थ किया, फिर अपने दुकूल के आँचल में उसे टॉपकर उत्तका लिलार चूम लिया। वसन्त ने बहुत ही सनातं हए कमल के पत्तों पर अतिथियों के सम्मख फलाहार रखा। सुख और दुख के खट्टे-मीठे आँसू भरते, मामा और मामी ने फलाहार कर अपने को धन्य माना । इसके अनन्तर अंजना ने वसन्त का परिचय दिया। उसके अप्रतिम सर्वस्व-त्याग की कथा सुनकर विद्याधर यूगल की आँखें फिर सजल हो आयीं । बार-बार बलाएँ लेकर, उन्होंने नतशिर होकर उस निष्काम संगिनी के त्याग का अभिनन्दन किया। थोड़ी ही देर के इस संयोग और पारस्परिक बातचीत में, मामा ने मन-ही-मन समझ लिया था कि इस अंजना के मन पर काबू पा जाना सहज नहीं है। वसन्त के मुँह से इस लकड़ी की दुर्धर्ष लीलाएं सुनकर, विद्याधर की सारी विद्या और पौरुष की तर्ह काँप उठी थीं। फिर भी डरते-डरते विनती के स्वर में प्रतिसूर्य ने अंजना से कहा ___"बेटी अंजन, जानता है कि समस्त लोक तेरे प्रति अपराधी है। उसी लोक के बन्धनों में बँधा मैं भी एक अज्ञानी मानव हैं। आज तुझे उसी लोक में लौटने को कहते, यह छाती फटी पड़ती है। संसार ने जो अन्याय तेरे साथ किया, उसका प्रायश्चित्त नहीं हो सकता। लेकिन फिर भी यदि तू अपने इस दुखी और निःसन्तान मामा पर दया कर सके, तो उसका हनुरुहद्वीप तुझे पाकर धन्य होगा और धन्य होगा उसका जीवन... बोलते-बोलते कण्ठ भर आया। कुछ देर रहकर फिर प्रतिसूर्य बोले-"प्रतिसूर्य का जीवन वैसे ही सूना और निरर्थक है-और आज यदि तू नहीं चलेगी मेरे साथ-तो . संसार में यही सब कुछ देखने के लिए अब और जीवित नहीं रह सकूँगा-तुझे विवश करने का पाप कर रहा हूँ, पर स्वयं विवश हो गया हूँ..." कहकर मामा ने फिर एक बार अंजना के हाथ जोड़ लिये। अंजना ने हृदय के आवेग पर संयम किया और धीर गम्भीर स्वर में कहा "...अपराध लोक का और किसी का भी नहीं है मामा, अपने ही पूर्व में किये कर्मों का वह फल है। अपने ही उस अर्जित पाप की लोक के माथे थोपकर, फिर नया पाप में नहीं बाँधंगी।-प्रभु मी बल दें कि सपने में भी, अपने दख के लिए पर को दोष देने का भाव मझमें न आए। दुख है मन में तो इसी बात का कि लोक के जो अनन्त उपकार मुझ पर हैं, उनकी ओर से पीठ फेरकर मैं कृतघ्ना अपने बचाव के लिए, इस निर्जन में मुंह छिपाती फिर रही हूँ!-तुम्हार प्रेम को न पहचान स.। इतनी हृदयहीन भी नहीं हो गयी हूँ, मामा! पर सोचती हूँ कि मैं बहुत अयोग्य मुक्तिदूत :: IRE

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