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द्वीप के चारों ओर की समुद्र-लहरों के गर्जन में गूंज-पूँज उठता-"काम कुमार हनुमान् की जय, अजितवीयं हनुमान की जय...!"
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रत्नकूट प्रासाद से उड़कर पवनंजय का यान कैलास की ओर वेग से बढ़ रहा है। आकाश के तटों में चारों ओर दिन का नवीन उजाला उमड़ रहा है। नीचे धुन्ध और बादलों में होकर, शस्य-श्यामला पृथ्वी का चित्रमय गोलाधं तैरता-सा दीख रहा है। पवनंजय के दोनों हाथ यान के चक्र पर थमे हैं। पीछे उड़ता हुआ श्वेत उत्तरीय, मानो पीछे से कोई खींच रहा है। ज्यों-ज्यों बह अदृश्य हाथ उस उत्तरीय को अधिक खींचता है, पवनंजय के हाथ का चक्र उतने ही अधिक बेग से घूमता है। यान की गति जैसे समय की गति से होड़ ले रही है।
सापने कैलास की हिमोज्ज्वल चूड़ाएँ दीख रही हैं। उन पर स्वर्ण-मन्दिरों की उड़ती हुई ध्वजाओं में, आज मुक्ति के आंचल का आसान है।-मार का हाय चक्र पर थमा रह गवा-यान हवा की मर्जी पर छूट गया। पवनंजय को प्रतीत हुआ कि आज की गति का सुख अपूर्व है; इसमें निरर्थक उद्वेग नहीं हैं, प्राप्ति का आनन्द है। कितनी ही बार इससे कहीं बहुत ऊँची और खतरनाक ऊँचाइयों में वह यान पर उड़ा है। दुर्दम्य था उन उड़ानों का वेग! पर उनमें सुख नहीं था, प्राप्ति नहीं थी, लक्ष्य नहीं था। थी एक विघातक छलना। चारों ओर शून्य ही शून्य था, आमन्त्रणहीन और निर्वाक् ।
पर आज तो दिशाएँ अवगुण्ठन खोले मुग्धा-सी खड़ी हैं। उनकी भुजाओं में एक उन्मुक्त आलिंगन खेल रहा है। और उसके सम्मुख पवनंजय का माथा नीचे झुक गया है। उन गीली भृकुटियों का मान पानी बनकर आँखों से ढलक पड़ा है।-नहीं है साहस कि इस आलिंगन को वे झेल लें। नहीं है बल कि उसे अपनी भुजाओं में बाँध लें, या आप उसमें बँध जाएँ। अपनी असामथ्यं की लज्जा में के डुबे जा रहे हैं। इन दिशाओं को जीतने का उनका एक दिन का अरमान आज अपनी ही खिल्ली उड़ा रहा हैं |--पवनंजय को प्रतीत हुआ कि बाहर की ओर जो वह गति की चंचल वासना दिन-रात मन को उद्वेलित किये थी, वह थी केवल मति की प्रान्ति । वह थी गति की भटकन-अवरोध-उसी मरीचिका को समझ रहा था वह-प्रगति?-भीतर की धुरी में जहाँ नित्य और सम परिणमन है, उसी केन्द्र में पवनंजय आज 'मानो लौट रहे हैं।
कानों में गूंज रहे हैं विदा-वेला के अंजना के वे शब्द -"मेरी शपच लेकर जाओ कि अनीति और अन्याय के पक्ष में, मद और मान के पक्ष में तुम्हारा शस्त्र नहीं
मुक्तिदूत :: 187