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में अब देर नहीं है। उसके पिछले द्वार में सेंध लगाकर उसे तोड़ा जा रहा है!... " आँखें नीची किये पवनंजय चुपचाप सुन रहे थे। बड़ी कठिनाई से अपनी हँसी पर वे संयम कर रहे थे। चलती बेर दृष्टि उठाकर आँखों में ही ममं की एक ऐसी हंसकर पवनंजय ने रावण की ओर देखा और सहज मुसकरा दिया। प्रत्युत्तर में रावण भी अपनी हंसी न रोक सके। महासेनापति के इंगित पर जब कुमार चलने को उद्यत हुए, तो पाया कि चारों ओर से बार चरन लाले सैनिकों से घिरे हैं। जरा आगे बढ़ने पर प्रहस्त भी उनके अनुगामी हुए ।
योगवशात् रावण के जिस महल के शिखर कक्ष में पवनंजय और प्रहस्त बन्दी बनाकर रखे गये थे, वहीं के एक गुम्बद की ओट में पवनंजय अपना यान छोड़ आये थे। आतंक के उस बन्दीगृह के प्रहरी भी, दिन-रात आतंकित रहकर मृतवत् हो गये थे। जीवन में पहली ही बार पवनंजय का बह लीला-रमण स्वरूप देखकर ये बर्बर प्रहरी उस आतंक से मुक्ति पा गये। मुग्ध और विभोर आँखों से वे एकटक पवनंजय की निराली चेष्टाएँ देखते रह गये। रावण का भयानक प्रभुत्व एकबारगी ही वे भूल गये । यन्त्र की तरह जड़ और कठोर हो गये वे मानव के पुत्र, फिर एक बार सहज मनुष्य होकर जी उठे। उन्हें पास बुलाकर पवनंजय ने उनका परिचय प्राप्त किया, अपना परिचय दिया और सहज हो अपने भ्रमण के अद्भुत और रंजनकारी वृत्तान्त सुनाने लगे। आनन्द और कौतूहल में अवश होकर प्रहरी बह चले। आठों पहर उनके हाथ में अडिग तने रहनेवाले वे नग्न खड़ग एक ओर उपेक्षित-से पड़े रह गये। बातों ही बातों में कब शाम हो गयी और कब दिन डूबकर रात पड़ गयी, सो प्रहरियों को भान नहीं है। एक के बाद एक ऐसे रस-भरे आख्यान कुमार सुना रहे हैं, कि आसरास के वे निरीह प्राणी उस रस धारा की लहरें बनकर उठ रहे हैं और मिट रहे हैं। कुमार से बाहर उनका अपना कर्तृत्व या अस्तित्व शेष नहीं रह गया है...
... कहानियाँ सुनते-सुनते जाने कब वे सब प्रहरी अबोध बालकों से सो गये - । इसी बीच प्रहस्त की भी आँख लग गयी। अकेले पवनंजय जाग रहे हैं। आँखें मूँदकर कुमार एक तल्प पर लेट गये। संकल्पपूर्ण वेग से सजग होकर अपना काम करने लगा। -रावण के आदेश में अपने प्रयोजन की एक बात उन्होंने पकड़ ली थी द्वीप के पिछले द्वार में सेंध लगाकर उसे तोड़ा जा रहा है। यदि द्वार टूट गया, तो इसके बाद द्वीप पर नाश का जो नृत्य होगा, हिंसा का वह दृश्य बड़ा ही रौद्र और लोमहर्षी होगा । जितना ही रक्त रायण को अब तक इस युद्ध में बहाना पड़ा है, उसका चौगुना रक्त बहाकर वह इसका प्रतिशोध लेगा। रावण से बात कर उन्हें यह निश्चय हो. गया था कि त्रिखण्ड पृथ्वी का अधीश्वर अपना ही अधीश्वर नहीं है। वह तो अपने ही से हारा हुआ है। उसे हराने की समस्या उनके सामने नहीं है। हराना है उस जड़त्व की शक्ति को जिसके वशीभूत होकर, रावण- सा महामानव इतना दयनीय और दुर्बल हो गया है। वह तो स्वयं त्राण और रक्षा का पात्र हो गया है, उसे हराने की
सा: मुक्तिदूत