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उठेगा। क्षत्रिय का रक्षा-व्रत विजय के गौरव और राजसिंहासन से बड़ी चीज्ञ है। तुम्हारा ही पक्ष याद अन्याय का है तो उसी के विरुद्ध तम्हें लड़ना होगा....
__ नहीं चाहिए आज उसे वीरत्व की कीर्ति । जम्बू-द्वीप के नरेन्द्र-मण्डल पर अपने पराक्रम की छाप डालने की इच्छा, आज मानो अनाचास लुप्त हो गयी है। राज्य की आकांक्षा तो किसी भी दिन उसमें नहीं थी। और विजय के शिखर वह सारे गँध आया है, वहाँ हैं केवल निष्प्राण शिलाएँ, जो शून्य में कसककर दम तोड़ रही हैं, और हवाएँ रुदन की तरह वहाँ भटक रही हैं। वहाँ से गिरकर तो वह धरती के पादमूल में आ पड़ा है। चारों ओर से हारकर आज जब वह सर्वहारा हो गया है, तो विश्व की सारी विजयों और महिमाओं के मूल्य उसे फ़ीके लग रहे हैं। मानो पैरों के पास टूटी हुई जयमालाओं के फूल कुम्हलाये हुए पड़े हैं! पवनंजय का सारा मन आज उस शान्त समग की तरह पड़ा है, जो अपनी धरिणी पृथ्वी की गर्भ-सेज में आत्मस्थ होकर सो गया है।
मानसरोवर पर यान उस। | सनाचों को आज्ञा दी गयी कि प्रस्थान की तैयारी करें। रण-सज्जा में सजे हुए पवनंजय गम्भीर चिन्ता में मग्न हैं। पास ही, एक चौकी पर प्रहस्त चुपचाप बैठे हैं। एकाएक पवनंजय ने मौन तोड़ा
“बन्ध प्रहस्त, अब युद्ध सम्मुख है। यह भी जान रहा हूँ कि वार अनिवार्य है, और मेरी इच्छा का प्रश्न उसमें नहीं है। वह कर्तव्य की अटल और कठोर मांग है। पर यह भी निश्णय अनुभव करता हूँ कि शायद यही मेरे जीवन का पहला और अन्तिम युद्ध होगा। क्योंकि नहीं समझ पा रहा हूँ कि बाहर किसके विरुद्ध मुझे लड़ना है?...मुझे तो साफ़ दीख रहा है, प्रहस्त, कि शत्र वाहर कहीं नहीं है-बह अपने ही भीतर है। वही शत्रु सबसे बड़ा हैं और अब तक उसी से पद-दलित होता रहा हूँ! उसे ही अपना सारा अपनत्व सौंप बैठा था, और निरन्तर छाती में पदाघात सहकर भी उसी के पैरों से लिपटा रहा। आज उसे पहचान सका हूँ, और उसी से आज खुलकर मेरा युद्ध होगा। उसे जीते बिना, बाहर की इन सारी विजयों के अभियान मिथ्या है-वह निरी आत्म-प्रबंचना है। पर उसे जीत पामा क्या सहज सम्भव है: कुछ ही प्रहस्त, उस शत्रु को अधीन किये बिना, पवनंजय को इस युद्ध से लौटना नहीं है...."
सुनकर प्रहस्त को खुशी का ठिकाना नहीं था। उसके मन का सवले वड़ा बोझ जैसे आज उतर गया। उसे निष्कृति मिली. वड़ कृतार्थ हुआ। उसका दिया दर्शन आज मस्तिष्क से उतरकर हृदय की मर्मवाणी में बोल रहा है। प्रहस्त सुनकर पुलकित हो रहे। फिर सहज बात को सहारा भर दे दिया
___ "हाँ पवन, समझ रहा हूँ। चाहे जितना दूर तुमने मुझे टेला, पर क्या तुमसे क्षण भर भी दूर मैं अपने को रख सका? -हाँ, तो सुनें पवन, क्या है तुम्हारी योजना?"
१५५ :: गुम्हिदूत