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नहीं
गणित है; यथार्थ जीवन को व्यवहार के उसी हिसाब-किताब से चलाना होगा, तो बड़ी उलझन हो जाएगी।"
कहकर प्रहस्त ने होट काटकर हँसी दबा दी । जान रहा है कि वह आप द्वैत के शिकंजे में फँसा है और पवनंजय को भी उसी में खींच रहा है। क्योंकि वह तो इस समय उस प्रत्यक्ष राज - कर्तव्य का प्रतिनिधि है और उसके प्रति उत्तरदायी होने को यह बाध्य है । पर पवनंजय का मन निर्द्वन्द्व और स्वच्छ है, तुरन्त प्रहस्त को भुजा पर लिया और ई लुसकराते हुए बोले
!
"भैया प्रहस्त, वय में कुछ ही तुम मुझसे बड़े ही; पर बचपन से तुम्हें गुरुजन की तरह मन-ही-मन श्रद्धा की दृष्टि से देखा है। राजनीति के सूत्र यदि कभी तुमसे सीखे थे, तो अध्यात्म और दर्शन का मूल संस्कार भी तुम्हीं ने मुझे दिया था । पर मुझे लग रहा है, प्रहस्त, उलझन बाहर कहीं नहीं है, वह तुम्हारे मन में ही है । भगवती के वक्ष में जल रही धर्म की जोत यदि हमारा पथ उजाल रही है, तो फिर कौन-सी राजनीति हैं, जो उससे ऊपर होकर हमारा पथ बदल सकती है? धर्म और राजनीति को अलग-अलग करके देखना, जीवन को अपने मूल से तोड़कर देखना है ! तब जीवन की परिभाषा होगी मात्र संघर्ष - स्वार्थों के लिए संघर्ष, मान और तृष्णा के लिए संघर्ष, संघर्ष के लिए संघर्ष । उसमें अभीष्ट सर्व का और अपना आत्म-कल्याण नहीं है। उसमें उद्दिष्ट है केवल अपने तुच्छ, पार्थिव स्वार्थी और अहंकारों की तुष्टि । गणित का काम तो खण्ड-खण्ड करना है, कई अंशों और भिन्नों में जीवन को बाँटकर हमारे चैतन्य को ह्रस्व कर देता है। इसी से वह केवल निर्जीव वस्तुओं की माप-जोख के लिए है । पर जीवन का अनुरोध है, अखण्ड की ओर बढ़ना। उसका गति-निर्देश गणित और हिसाबी राजनीति से नहीं हो सकेगा। जीवन का देवता है धर्म, जो हमारे अन्तर के देवकक्ष में शाश्वत विराजमान है। जीवन का सूत्र - संचालन वहीं से हो रहा है। ज़रा भीतर झाँककर देखें, हमारे हृदय के स्पन्दन में उसका वेदन सतत जाग्रत है। हृदय जड़ीभूत हो गया था, इसी से राह खो गयी थी। धर्म की अधिष्ठात्री ने आज स्वयं, हृदय को मुक्त कर दिया है, इसी से राह अब साफ़ दीख रही है। वास्तव की यह ठोस और अन्तिम दीखनेवाली सचाई, यथार्थ में जड़ता है, वह मिथ्या है, उससे नहीं जूझना है। जड़ता से टकरा रहे हैं, इसी से गणित और राजनीति सूझ रही है । जीवन प्रवाही है, सो उसका सत्य भी प्रवाही है। धर्म उसी प्रवाह की अखण्डता के अनुभव का नाम है। अपने प्राण की हानि से बचना ही हमारी पल-पल की चेतना है; दूसरे का प्राणघात कर अपना प्राण सदा अरक्षित ही रहेगा। इसी निरन्तर अरक्षा की स्थिति से ऊपर उठने के लिए, हमें अपने ही प्राण के अनुरोध के अनुसार, निखिल के प्राण को अभय देना है। राजा और राज्य इसीलिए हैं, शासन और व्यवस्था इसीलिए हैं। इसी रक्षा व्रत का पालन करने के लिए पृथ्वी पर क्षत्रिय का जन्म है। - सिंहासन पर बैठे हैं धर्मराज, लोक में शासन
मुक्तिदूत : 191