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नहीं है।-कोन-सी शक्ति लेकर इस महामृत्यु के समाख वह खड़ा हो सकेगा...:
...क्या मानव के उसी पुरुषार्थ, शौर्य-वीर्य, विद्या-बुद्धि और बल के सहारे वह इल मांत का प्रतिकार कर सकेगा, जिससे प्रमत्त होकर मनुष्य ने स्वयं इस मौत को आमन्त्रित किया है-? नहीं, उस अड़ शक्ति से टकराकर तो यह जीभृत जड़त्व और भी चौगना होकर उभरेगा! उन सारी शक्तियों से इनकार करके ही आगे बढ़ना होगा।--नितान्त बलहारा, सर्वहारा और अकिंचन होकर ही शक्ति के उस विपुल आयोजन के सम्मुख, अच्युत और अनिरुद्ध खड़े रहना होगा।--जीवन के अमरत्व में श्रद्धा रखकर, चैतन्य की नग्न और मुक्त धारा को ही उसके सम्मुख बिछा देना होगा, कि मौत भी चाहे तो उसमें होकर निकल जाए. उसे रोक नहीं है। तब वे शक्तियाँ और वह मौत अपने आप ही उत्तमें विसर्जित हो जाएँगे, उसे पार करके जाने में उसकी सार्थकता ही क्या है ?-मौत के सम्मुख हमारा चैतन्य कुण्ठित हो जाता है, इसी से तो मौत हमारा घात कर पाती है। पर चैतन्य यदि अव्याबाध रूप से खुला है, तो उसमें आकर मौत आप ही मर जाएगी। पवनंजय को लग रहा है कि अन्यथा जीवन को अवस्थान और कहीं नहीं है। वह अस्तित्व के उस चरम सीमान्त पर खड़ा है, जहाँ एक और मरण है और दूसरी ओर जीवन । दोनों के बीच उसे चुन लेना है। तीसरी राह उसके लिए खुली नहीं है- । यदि वह सचमुच जीना चाहता है तो मौत से बचकर चा उससे भयभीत होकर जाना सम्भव नहीं हैं। तब जीवन की यदि चुनना है तो मौत के सम्मुख उसे खुला छोड़ देना होगा, मौत आप ही मिट जाएगी। जीवन को रक्षा के लिए यदि उस मौत से लड़ने और अबरोध देने जाओगे, तो आप ही उसके ग्रास हो जाओगे। इसलिए जीवन यदि पाना है, तो उसे दे देना होगा। एक पात्र इसो मूल्य से उसे पाया जा सकेगा। और पवनंजय जीना चाहता है-!
...उसके भीतर की सारी वेदना के स्तरों में से, सत्य का यही एक सुर सबसे ऊपर होकर बोल रहा हैं। उसके समूचे प्राण में इस क्षण एक अनिर्वार अथा है, कि यह बाहर का विश्व क्यों उससे विच्छिन्न होकर, उसका पराया हो गया है? उसके साथ फिर निरवच्छिन्न होकर उसे जुड़ जाना है।- उस बाहर के विश्व में यह जो नाश का चक्र चल रहा है, इसमें अपने ही आत्मघात की वेदना उसे अनुभव हो रही है। इसी में अपनी समस्त चेतना को बाहर फेंककर, उसके पूरे जोर से बह उस बहिर्गत विश्व को अपने भीतर समेट लेना चाहता है, कि वह उसकी रक्षा कर सके।
और इस संबंदन के भीतर छिपा है उसकी अपनी ही आत्मरक्षा का अनुरोध! तब बाहर के प्रति अपने को देने में किसी कर्तव्य का अनुरोध नहीं है, वह तो अपनी ही आत्म-वेदना से निस्तार पाना हैं।
मन-ही-मन अपना भावी कार्यक्रम गथकर, रात ही को पवनंजय ने रावण के गृह-लचिव से अनरोध किया कि सवेरे वे स्वयं जाकर पहामण्डलेश्वर से मिलना
TUS :: गांक्तदूत