Book Title: Muktidoot
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 173
________________ हृदय जाने किस अचिन्त्य दुख से उफना रहा था। वसन्त की आँखों में थे राजमहल के उस अपूर्व जन्मोत्सव के चित्र, जो कभी होनेवाला नहीं है। याद आया उसे नर-नारियों के हयं कोलाहल से भरा यह राजांगन। प्रासादमालाओं पर सिंगार-सजावट की वे विचित्र शोभाएँ, वे ध्वज-तोरण और वन्दनवारें, वे रंग-बिरंगी दीपावलियों --वह गीत-गान, नृत्य-वार्यों का समारोह। और तभी याद आये उसे अपने वे फूल-से बालक... | दोनों बहनों में एक-दूसरे की जर मैं फेल म का दिये गु: को और भी जाज्वल्यपान उजाले से भरता हुआ शिशु मुसकरा दिया! अद्भुत तरंगों के चांचल्य से वह चारों और हाथ-पैर संचालित कर रहा है-पानो दिशाओं के पालने में ही झूल रहा है। यथासमय वसन्त ने अंजना को फलों का थोड़ा रस पिलाया और आप भी फलाहार किया। अंजना की सारी बाल-प्रकृति, उसका चांचल्य और गौद्धत्य आज खो गया है। हलकी होकर भी आज वह एक अपूर्व सम्भार से गम्भीर हो गयी है। भविष्य की अगम्य दरियों में फिर उसका चिन्ताकुल मन भटकता चला गया है। ...धुंधले रहस्यावरणों की बादल-वाहिनी सुदूरता में, जहाँ उसने बार-बार देखा है--पृथ्वी और आकाश एक अरूप एकता में बँध गये हैं-वहीं उसको आँखें लगी हैं; वह पूछ रही है-"कहाँ हो तुम...? किन दुख की विभीषिकाओं में तम मरे मन की ताथ पूरने गये हो...? क्या नहीं लौटोगे कभी इस राह..." वसन्त के सामने अब तक ती प्रसव की चिन्ता ही सर्वोपरि थी। आज अंजना उससे भी निष्कृति पा गयी है। इस परम पुण्याधिकारी बालक की वह जननी है। और विचित्र है इसका पुण्य जो निजन कन्दरा में जन्म लेकर प्रकाशित हो रहा है। लेकिन अब-? अब क्या है भविष्य? कहाँ है पवनंजय; क्या है अंजना का और उनका भावी ? किस राह ले जाएगा हमें यह अतुल तेज और पराक्रम का स्वामी बालक? मुनि ने कहा था, पसगों से खेलते चलना इसका स्वभाव है । मुनि के वचन तो कभी निरर्थक नहीं होते। जाने कब यह हमें उन उपसों से पार करेगा, जाने कब यह अपने चिर दिन के विछोही माता-पिता को मिलाएगा। यह भविष्य न तो वह मुनि से पूछ पायी, और न मुनि ही उसका कुछ संकेत कर गये हैं -शान क्यों? ...दोपहरी दल रही थी कि अचानक आकाश की ओर वसन्त की निगाह खिंची।-प्रभा के पुंज-सा एक विमान, विपुल गम्भीर स्वर स पर्वत-प्रदेश का भरता हुआ, नीचे की ओर आ रहा है। वसन्त अनेक भय और आशंकाओं से भर उठी। भीतर आकर उसने अंजना को यह सूचना दी तो उसे भी रोमांच हो आचा। अनजाने ही उसने वालक को और भी प्रगाढ़ता से छाती से दाब-दाय लिया। मन में उसके फूटा-"आह, कौन जाने कोई पूर्व भव का वैरी है या आमीय। पर आत्मीय-? नहीं आएगा बह - हरगिज नहीं आएगा मुडा अभांगनी के पास इस अरण्य-खण्ड की भयानक विजनता में...." मुक्तिदत :: ।

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