Book Title: Muktidoot
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 166
________________ काल के जाने किस अविभाज्य अंश में एकबारगी ही वह उन सबकी जननी और प्रणयिनी हो उठती। ...द्राक्ष के कुंजों और कदली-यनों में नीलकण्ठ और पीतकण्ठ पक्षियों के आवास हैं। अलसाती और उबासियाँ भरती अंजना वहीं पहुंचकर दोपहरी का शेष भाग बिताती। उन पक्षियों के घोंसलों तले लेटते ही उसे नींद लग जाती। निश्चिन्त और अभय होकर रंग-बिरंगे पछी आकर उसकी देह पर फुदकते और क्रीडा करते। रह-रहकर अंजना की नींद भंग होगी । पर वन के इस लोने दीरमा को जब चित्र-विचित्र पंखों की माया फैलाकर अपने ऊपर निछावर होते देखती, तब उनके आनन्द में आप भी चुपचाप योग देने के सिवा वह और कुछ न कर पाती। उनकी नाना तरह की बारीक बोलियों में सुर मिलाकर वह भी उनसे कुछ बोलती-बतलाती। और उस आनन्द की अर्थहीन निष्प्रयोजन तुतलाहट में मन के जाने कितने अनिर्वचनीय भाव और सन्देशे वह उन पंछियों के अज्ञान मनों में पहुंचा देती। यह ऊपर का स्वरालाप तो एक लीला-भर थी, पर भीतर के वेदन-संवेदन में होकर प्राण का संगोपन जाने कब हो गया था, सो कौन जान सकता है? ...उपत्यका के प्रदेश में कहीं वेतस की बेलों के प्रतानों में घने बाँस हैं। कहीं शाल्मली और शाल वृक्षों की कतारें मण्मुलाकार सहेलियों-सी एक-दूसरे से गुंथी खड़ी हैं। यहाँ आते ही अंजना की वे बालापन के दिन फिर याद हो आते- सस, नृत्य और झूमरें, वे सखियों के साथ बौह से बाँह गूंथकर होनेवाली गोपन-वाताएँ, वे किशोर मन के छलघात और जिज्ञासाएँ ये भीतर ही भीतर कसककर रह जानेवाले अबोध प्रश्न!-आँखों में आँसू अनजाने ही उभर आते- । उन वृक्षों की मुंघी डालों में झूलती हुई फिर एक बार आँख मूंदकर वह झूमर-सी ले उठती-हिंडोल-भरे राग का स्वर कण्ठ में आकर रुंध.जाता। वृक्षों की अलस मरमराहट में होकर फिर वह मण काल के उसो अतीत तीर पर लौट जाता। वह फिर वैसी ही बिछड़कर अपने अकेलेपन में डोलती रह जाती। तभी उन शाल और शाल्मलियों के अन्तराल में झाँकता कोई वन्य-सरोबर उसे दीख पड़ता। उसके किनारे शिलाओं के नैसर्गिक और रम्य घाट बने हैं। ऊपर बकुल और केतकी की झाड़ियाँ झुक आयी हैं। उनसे झरते पराग और फूलों से साल की सीढ़ियाँ दकी हैं। पानी की सतह भी उससे दूर-दूर तक छा गयी हैं। तो कहीं उस दूसरे किनारे पर हरसिंगार और गुलमौर झर-झरकर तट की सारी भूमि और किनारे का जल-प्रदेश केशरिया हो गया है। इसी घाट में बैठकर अंजना अपना तीसरा प्रहर प्रायः बिताया करती। यह केशरिया भूमि देख उसे लगता कि जाने कब, जाने कित्ती अमर सुहागिनी ने अपने प्रिय के साथ इस एकान्त तट में रमण किया होगा। और उसी सौभाग्य के चिह्न स्वरूप आज भी यह भूमि उनके चिर नवीन सौन्दर्य की आभा से दीप्त है। उस अविजानित अमर सुहागिन के उस लीलारमण के साथ तदाकार होकर वह जाने कब तक उस भूमि में सोयी 175 :: मुक्तिदूत

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