________________
उन्होंने अनुभव किया जैसे सारे भय, पीड़ा और चिन्ताएँ आत्मा के पीले पत्तों की तरह झरकर उन रत्नों की शीतल तरंगों में डूब गये हैं। एक अपूर्व अतीन्द्रिय आनन्द की गम्भीरता में डूबी दोनों बहनें आगे बढ़ती गयीं।
...एकाएक उन्हें धुंधला-सा उजाला दीखा। वन के शाखा-जाल प्रत्यक्ष होने लगे। थोड़ी दूर और चलने पर सापने मानो पृथ्वी का तट दीख पड़ा, और उसके आगे फैला है आकाश का नील और निश्चित शून्य । उस शून्य में दूर से आता हुआ एक महाघोष सुनाई पड़ा। ज्यों-ज्यों वे आगे बढ़ रही हैं वह महारव अपने प्रवाह में टूटकर अनेक ध्वनियों में बिखरता जा रहा है। पैर त्वरा से उस ओर खिंचते जा रहे हैं
चलकर त छोर पर जब वे दोनों पहँची, तो उन्होंने अपने को एक अतलान्त खाई के किनारे पर खड़ा पाया । उत्तुंग पर्वत-मालाओं के बीच महाकाल की दाद-सी बह खाई योजनों के विस्तार में फैली है। सामने पर्वत के सर्वोच्च शिखर देश की वनाली में से घहराकर आता हुआ एक झरना, सहस्रों धाराओं में बिखरकर, गगन-भेदी घोष करता हुआ खाई में गिर रहा है। उस पर से उड़ते हुए जल-सीकरों के कहासे में उड़-उड़कर फेन, वातावरण को आर्द्र और धवल कर रहे हैं। अस्तगामी सूर्य की लाल किरणें, दूर-दूर तक चली गयीं। हरितश्याम शैलमालाओं के शिखरों में शेष रह गयी हैं। पारियों को मायाह की नीली हामा सनी दो पदी हैं ' दर साई के आर-पार उड़ जाते पंछियों के पंखों पर दिन ने अपनी विदा की स्वर्णलिपि ऑक दी है।
उस अपरिमेय विराटता के महाद्वार के सम्मुख अंजना अपनी लघुता में सिमटकर मानो एक विन्दु मात्र शेष रह गयी....पर अपने भीतर एक सम्पूर्ण महानता में वह उभासित हो उठी। उसने पाया कि प्रकृति के इस अखण्ड चराचर साम्राज्य की वही अकेली साम्राज्ञी है। उसकी इच्छा के एक इंगित पर वे उत्त फूट पड़े हैं, उसकी उमंगों पर ये निर्झर और नदियों ताल दे रही हैं। उसके घू-संचालन पर ये तुंग पर्यंत उठ खड़े हुए हैं और आकाश की थाह ले रहे हैं। एक अदम्य आत्म-विश्वास से भर कर उसने पास खड़ी वसन्त को देखा। भय से घरांती हुई बसन्त मानी सफ़ेद हो उठी थी। मृत्यु के मुंह से निकलकर अभी आयी थीं कि फिर यह दूसरा काल सामने फैला है। यहाँ से लौटकर जाने को और कोई दूसरा रास्ता नहीं है, और न यहीं विराम की सुरक्षा और सुगमता का आश्वासन है। हाय रे दुर्दैव...!
एक लीलायित भंग से भौहें नचाकर हँसती हुई अंजना बोली
"घवराओ नहीं जीजी, वे देखो नीचे जो गुफ़ाएँ दीख रही हैं, वहीं होगा हमारा आवास । आओ, रास्ता बहुत सुगम है, तुम आँखें मौंच लो:"
करते हए अंजना ने वसन्त को छाती से चिपका लिया। वह स्वयं नहीं जान
. lti :: मुक्तिदूत